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सूत्रकृतांग नियुक्ति
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९६. आध्यात्मिक बल के अनेक प्रकार हैं
० उद्यम--ज्ञान आदि के अनुष्ठान में उत्साह । ० धृति-संयम में स्थिरता, चित्त का समाधान । ० धीरत्व-कष्टों में अक्षुब्धता । ० शौण्डीर्य-त्याग करने का उत्कट सामर्थ्य, जैसे चक्रवर्ती का मन अपने षखंड राज्य
___ को छोडते समय भी नहीं कंपता। आपदाओं में अविषण्णता । ० क्षमा--दूसरों पर क्षुब्ध न होने का सामर्थ्य । ० गांभीर्य-परीषहों तथा उपसगों को सहने में अधष्टता अथवा अपने चमत्कारी
अनुष्ठान में भी अहंकारशन्यता। ० उपयोग-आठ प्रकार के साकार उपयोग तथा चार प्रकार के अनाकार उपयोग से
युक्त। ० योग-मनोवीर्य, वचनवीर्य तथा कायवीर्य से युक्त । ० तप-बारह प्रकार के तपोनुष्ठान को अग्लानभाव से करना ।
० संयम---सतरह प्रकार के संयम में प्रवृत्ति ।' ९७ सारा भाववीर्य तीन प्रकार का है-पंडितवीर्य, बालवीर्य तथा बाल-पंडितवीर्य । अथवा वीर्य के दो प्रकार हैं-अगारवीर्य तथा अनगारवीर्य ।
९८. (चौथे श्लोक के अन्तर्गत आए 'सत्थ (शस्त्र)' पद की व्याख्या) शस्त्र--खड़ग आदि प्रहरण । इसी प्रकार विद्याधिष्ठित, मंत्राधिष्ठित तथा दिव्यक्रियानिष्पादित--ये भी शस्त्र हैं। ये पांच प्रकार के हैं-पार्थिव, वारुण, आग्नेय, वायव्य तथा मिश्र । नौवां अध्ययन : धर्म
९९. धर्म का प्रतिपादन पहले किया जा चुका है ।' प्रस्तुत में भावधर्म का प्रसंग है । यही भावधर्म है और यही भावसमाधि तथा समाधिमार्ग है।
१००. धर्म के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्यधर्म के तीन प्रकार हैं सचित्त, अचित्त और मिश्र । गहस्थों का कूलधर्म, ग्रामधर्म तथा जो उनका दानधर्म है, वह द्रव्यधर्म है।
१०१. भावधम दो प्रकार का है-लौकिक तथा लोकोत्तर । लौकिक धर्म दो प्रकार का है-गृहस्थों का तथा अन्यतीथिकों का। लोकोत्तर धर्म के तीन प्रकार हैं-ज्ञान, दर्शन और चारित्र । ये तीनों पांच-पांच प्रकार के हैं।'
१. विद्याप्रवादपूर्व में अनन्त प्रकार के वीर्यों का
वर्णन है। उसमें केवल वीर्य का ही प्रति
पादन है। २. देखें-दशनिगा ३६-४० । ३. ज्ञान के पांच प्रकार-मति, श्रुत, अवधि,
मनःपर्यव तथा केवल ।
दर्शन के पांच प्रकार-औपशमिक, सास्वादन, क्षायोपशामिक, वेदक और क्षायिक । चारित्र के पांच प्रकार-सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्ध, सूक्ष्मसंपराय तथा यथाख्यात ।
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