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सूत्रकृतांग नियुक्ति
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१६०. देव, मनुष्य, तिर्यञ्च तथा नैरयिक-इन चार गतिवाले प्राणियों के मध्य मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है, जो चारित्र के स्वीकार और पालन में समर्थ होता है। उनमें भी महाजन के नेता चक्रवर्ती का यहां प्रसंग है।
१६१. जो भारीकर्मा जीव हैं तथा निश्चित ही उत्कृष्ट नरक स्थिति का बंध कर नरकगामी जीव हैं, वे भी जिनेश्वर के उपदेश से उसी भव में सिद्ध हो जाते हैं ।
१६२,१६३. एक पुष्करिणी है। वह अत्यंत गहरी, पंकिल, अनेक प्रकार की वल्लियों से संकीर्ण है। वह जंघाओं, बाहुओं तथा नौकाओं से दुस्तर है। उसके बीच एक पद्म है । उसको पाने वाले व्यक्ति को प्राण गंवाने पड़ सकते हैं। क्या ऐसा कोई उपाय नहीं है, जिससे कि पौंडरीक को प्राप्त कर पुष्करिणी को सकुशल पार किया जा सके ?
१६४. (प्रज्ञप्ति आदि) विद्या के बल पर, देवता-कर्म के द्वारा अथवा आकाशगामिनी लब्धि से उस पद्मवर पौण्डरीक को लेकर सकुशल आया जा सकता है परंतु यह जिनाख्यात उपाय नहीं है।
१६५. जिनेश्वर देव की विज्ञानरूप विद्या ही शुद्ध प्रयोग विद्या है । भव्यजन पौंडरीक उस विद्या-प्रयोग से सिद्धिगति को प्राप्त कर लेते हैं। दूसरा अध्ययन : क्रिया-स्थान
१६६. (क्रियाओं का वर्णन पहले आवश्यक नियुक्ति में किया जा चुका है तथा) प्रस्तुत अध्ययन में क्रियाओं का प्रतिपादन है, इसलिए इस अध्ययन का नाम 'क्रियास्थान' है। (क्रिया स्थानों से कुछ व्यक्ति कर्मों से बंधते हैं और कुछ मुक्त होते हैं) इसलिए यहां बंधमार्ग और मोक्षमार्ग का प्रसंग है।
१६७. द्रव्य क्रिया है-प्रकम्पन । भाव क्रिया के आठ प्रकार हैं-प्रयोगक्रिया, उपायक्रिया, करणीयक्रिया, समुदानक्रिया, ईर्यापथक्रिया, सम्यक्त्वक्रिया, सम्यमिथ्यात्वक्रिया तथा मिथ्यात्वक्रिया।
१. १. प्रयोगक्रिया-मन, वचन और काया की सयोगिकेवली तक होने वाली क्रिया, प्रवृत्ति ।
ग्यारहवें गुणस्थान तक होने वाली सूक्ष्म २. उपायक्रिया-द्रव्य की निष्पत्ति से होने क्रिया। यह तीन समय की स्थिति वाली वाली उपायात्मक क्रिया।
होती है-प्रथम समय में बंध, दूसरे में ३. करणीयक्रिया-जिस द्रव्य की निष्पत्ति जैसे संवेदन और तीसरे में निर्जरण। यह वीतहोती है वैसी क्रिया करना । जैसे-मिट्टी से राग अवस्था की क्रिया है।
ही घर बनता है, पथरीली बाल से नहीं। ६. सम्यक्त्वक्रिया-सम्यग्दर्शनयोग्य ७७ ४. समुदानक्रिया-गृहीत कर्मपुद्गलों को प्रकृतियां हैं, उनको बांधने वाली क्रिया।
प्रकृति, स्थिति, अनुभाव और प्रदेश रूप में ७. सम्यगमिथ्यात्वक्रिया-७४ प्रकृतियों का व्यवस्थित करना । यह क्रिया असंयत, संयत, बन्ध करने वाली क्रिया।
अप्रमत्त संयत, सकषाय व्यक्ति के होती है। ८. मिथ्यात्वक्रिया-१२० प्रकृतियों का बन्ध
५. ईर्यापथक्रिया-उपशान्त मोहावस्था से करने वाली क्रिया । Jain Education International For Private & Personal Use Only
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