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आचारोग नियुक्ति
२१९. भावसम्यक् तीन प्रकार का है-दर्शन, ज्ञान और चारित्र । दर्शन और चारित्र के तीन-तीन भेद हैं तथा ज्ञान के दो प्रकार हैं।
२२०. जैसे (कार्यकुशल) अंधा व्यक्ति शत्रसेना को नहीं जीत सकता, वैसे ही मिथ्यात्वी व्यक्ति क्रिया करता हुआ भी, स्वजन-धन और भोगों को छोड़ता हुआ भी तथा प्रचुर दुःख को सहता हुआ भी कार्यसिद्धि नहीं कर सकता।
२२१. मिथ्यादष्टि वाला मनुष्य निवृत्ति करता हआ भी, स्वजन-धन और भोगों को छोड़ता हुआ भी तथा प्रचुर दुःखों को सहता हुआ भी सिद्धि को प्राप्त नहीं कर सकता ।
२२२. इसलिए जो साधक कर्म-सेना को जीतना चाहता है, उसे सम्यग्दर्शन में प्रयत्नशील रहना चाहिए। सम्यग्दर्शनी साधक के ही तप, ज्ञान और चारित्र सफल होते हैं ।
२२३,२२४. प्रस्तुत दो श्लोकों में सम्यग्दर्शन तथा उसके पूर्व के गुणस्थानों का निर्जरा की दृष्टि से तारतम्य बताया गया है। सम्यग्दर्शन की विवक्षित उत्पत्ति तक असंख्येय गुण श्रेणिस्थान बताए गए हैं । (जैसे--मिथ्यादृष्टि तथा देशोनकोटिकोटिकर्म स्थितिवाले ग्रन्थिकसत्त्व (मिथ्यादष्टि)-दोनों कर्म-निर्जरा की अपेक्षा से तुल्य होते हैं। जिनमें धर्मपृच्छा की संज्ञा उत्पन्न हो जाती है, वे उनसे असंख्येय गुण अधिक निर्जरक होते हैं । उनसे भी असंख्येय गुण अधिक निर्जरक वे होते हैं जो धर्म की जिज्ञासा करने साधुओं के समीप जाते हैं। उनसे भी असंख्येय गुण निर्जरक होता है धर्म क्रिया को स्वीकार करने वाला। उससे भी असंख्येय गुण अधिक निर्जरक वे होते हैं जो पहले ही धर्मक्रिया में संलग्न हैं। यह सम्यक्त्व की उत्पत्ति की व्याख्या है।) उनसे विरताविरति को स्वीकार करने वाले श्रावक, उनसे सर्वविरत, उनसे अनन्तकाशों को क्षय करने के इच्छुक, उनसे दर्शनमोह की प्रकृतियों को क्षीण करने वाले, उनसे उपशांत कषाय, उनसे उपशांत मोह, उनसे चारित्रमोह के क्षपक उनसे क्षीणमोह, उनसे जिन-भवस्थकेवली, उनसे शैलेशी अवस्था प्राप्त जिन-ये सब उत्तरोत्तर असंख्येय गुना अधिक निर्जरक होते हैं। काल की दृष्टि से यह क्रम प्रतिलोम रूप से संख्येय गुना श्रेणी की अवस्थिति से व्यवहार्य होता है । यह अयोगी केवली से प्रारब्ध होकर प्रतिलोम रूप में धर्मपृच्छा तक चलता है । जैसे-जितने काल में जितने कर्मों का क्षय अयोगी केवली करता है, उतने कर्म सयोगी केवली संख्येय गुना अधिक काल में क्षीण करता है।
२२५. आहार, उपधि, पूजा, ऋद्धि-आमर्ष औषधि आदि के निमित्त जो ज्ञान-चारित्र की क्रिया करता है तथा गौरवत्रिक से प्रतिबद्ध होकर जो क्रिया करता है, वह कृत्रिम क्रिया है। इसी प्रकार बारह प्रकार का तप भी आहार, उपधि आदि से प्रतिबद्ध होकर कृत्रिम हो जाता है। जो कृत्रिम अनुष्ठान में रत रहता है, वह श्रमण नहीं होता।
२२६,२२७. जो जिनवर- तीर्थकर अतीत में हो गए हैं, जो वर्तमान में हैं और जो अनागत काल में होंगे उन सभी ने अहिंसा का उपदेश दिया है और देंगे। (अहिंसक व्यक्ति) छह जीवनिकायों की न स्वयं हिंसा करे, न दूसरों से हिंसा करवाए और न हिंसा करने वालों का अनुमोदन करे । यह सम्यक्त्व अध्ययन की नियुक्ति है। १. औपशमिक दर्शन, क्षायोपशमिक दर्शन, मन:पर्यव। क्षायिक ज्ञान-केवलज्ञान, देखें
क्षायिक दर्शन । औपशमिक चारित्र, क्षायो- परि० ६ कथा सं० ४। पशमिक चारित्र, क्षायिक चारित्र ।
३. विस्तार के लिए देखें-आटी पृ ११८। २. क्षायोपशमिक ज्ञान-मति, श्रुत, अवधि,
वलज्ञान
३. विस्तारमा सं०४,
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