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सूत्रकृताग नियुक्ति
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१८. तीर्थंकरों के मत -मातृकापद को गणधरों ने क्षयोपशम तथा शुभ अध्यवसायों सुनकर से इस सूत्र की रचना की । इसलिए यह सूत्रकृत कहलाया ।
१९. तीर्थंकरों ने अपने वाग्योग से अर्थ की अभिव्यक्ति की । अनेक योगों (लब्धियों) के धारक गणधरों ने अपने वचनयोग से जीव के स्वाभाविक गुण अर्थात् प्राकृतभाषा में उसको निरूपित किया । "
२०. अक्षरगुण से मतिज्ञान की संघटना तथा कर्मों का परिशाटन -- इन दोनों के योग से सूत्र की रचना हुई, इसलिए यह 'सूत्रकृत' है ।'
२१. सूत्र में कुछ अर्थ साक्षात् सूत्रित (पिरोए हुए) हैं, कुछ अर्थ अर्थापत्ति से सूचित हैं । वे सभी अर्थ युक्ति युक्त हैं । आगमों में अनेक प्रकार से प्रयुक्त वे अर्थ प्रसिद्ध, स्वतः सिद्ध और अनादि हैं ।
२२. सूत्रकृतांग आगम के दो श्रुतस्कन्ध तथा तेवीस अध्ययन हैं ( १६+७) । उसके तेत्तीस उद्देशन काल हैं । इसका पद-परिमाण आचारांग से दुगुना है ।
२३. (पहले श्रुतस्कंध का एक नाम है-गाथा षोडशक 1 ) 'गाथा' के चार निक्षेप हैंनाम, स्थापना, द्रव्य और भाव तथा ' षोडशक' शब्द के छह निक्षेप हैं—नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । 'श्रुत' तथा 'स्कन्ध' के चार-चार निक्षेप हैं ।
२४-२८. प्रथम श्रुतस्कंध के सोलह अध्ययनों का अर्थाधिकार (विषय) इस प्रकार है-
१. स्वसमय तथा परसमय का निरूपण ।
२. स्वसमय का बोध ।
३. संबुद्ध व्यक्ति का उपसर्ग में सहिष्णु होना ।
४. स्त्री-दोषों का विवर्जन ।
५. उपसर्ग भीरू तथा स्त्री के वशवर्ती व्यक्ति का नरक में उपपात ।
६. जैसे महात्मा महावीर ने कर्म और संसार का पराभव कर विजय प्राप्त करने के उपाय कहे हैं, वैसा प्रयत्न करना ।
७. जो मुनि निःशील तथा कुशील को छोड़कर सुशील और संविग्नों की सेवा करता है, वह शीलवान् होता है ।
१. स्वाभाविकेन गुणेन स्वस्मिन् भावे भवः स्वाभाविक: प्राकृत इत्यर्थः, प्राकृतभाषयेत्युक्तं भवति । ( सूटी पृ. ५)
२. अथवा वाग्योग तथा मनोयोग से यह सूत्र कृत है, इसलिए सूत्रकृत है । अथवा यह द्रव्यश्रुत से भावश्रुत का प्रकाशन है । जैसे-जैसे गणधर सूत्र करने का उद्यम करते हैं, वैसे-वैसे कर्म - निर्जरा होती है । जैसे-जैसे कर्म निर्जरा होती है, वैसे-वैसे सूत्र - रचना का उद्यम होना है । (सूटी पृ. ५)
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३. प्रथम श्रुतस्कन्ध के सोलह अध्ययनों के २६ उद्देशक इस प्रकार हैं- पहले अध्ययन के ४, दूसरे अध्ययन के ३, तीसरे अध्ययन के ४, चौथे और पांचवें अध्ययन के दो-दो तथा शेष ग्यारह अध्ययनों के एक-एक उद्देशक हैं ।
द्वितीय श्रुतस्कन्ध के सात अध्ययनों के सात उद्देशक हैं ।
४. आचारांग से दुगुना परिमाण अर्थात् छत्तीस हजार पद-परिमाण ।
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