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आचारांग नियुक्ति
२९१ ४७,४८. जिस क्षेत्र में जिस ओर सूर्य उदित होता है, वह उस क्षेत्र के लिये पूर्व दिशा है और जिस ओर सूर्य अस्त होता है वह अपर दिशा-पश्चिम दिशा है । उसके दक्षिण पार्श्व में दक्षिण दिशा और उत्तर पार्श्व में उत्तर दिशा है । ये चारों दिशाएं सूर्य के आधार पर 'तापदिक' कहलाती हैं।
४९. जो मंदर पर्वत के पूर्व, दक्षिण, पश्चिम तथा उत्तर में मनुष्य हैं, उन सबके उत्तर में मेरु है।
५०. सबके उत्तर में मेरु तथा दक्षिण में लवण है । सूर्य पूर्व में उदित होता है और पश्चिम में अस्त होता है
५१-५८. कोई प्रज्ञापक जहां कहीं स्थित होकर दिशाओं के आधार पर किसी को निमित्त (ज्योतिष) का कथन करता है, वह जिस ओर अभिमुख है, वह पूर्व दिशा है । उसकी पीठ के पीछे वाली दिशा पश्चिम है । उसके दक्षिण पार्श्व में दक्षिण दिशा और बाईं ओर उत्तर दिशा है। इन चार दिशाओं के अन्तराल में चार विदिशाएं हैं। इन आठ दिशाओं के अन्तर में आठ अन्य दिशाएं हैं। इन सोलह तिर्यग दिशाओं का पिण्ड शरीर की ऊंचाई के परिमाण वाला है । पादतल के नीचे अधोदिशा तथा मस्तक के ऊपर ऊर्ध्वदिशा है। ये अठारह प्रज्ञापक दिशाएं हैं। इन प्रकल्पित अठारह दिशाओं के नाम यथाक्रम से मैं कहूंगा-पूर्व, पूर्व दक्षिण, दक्षिण, दक्षिण पश्चिम, पश्चिम, पश्चिम उत्तर, उत्तर, पूर्व उत्तर, सामुत्थानी, कपिला, खेलिज्जा, अभिधर्मा, पर्याधर्मा, सावित्री, प्रज्ञापनी, नीचे नैरयिकों की अधोदिशा तथा देवताओं की ऊर्वदिशा-ये सारे प्रज्ञापक दिशाओं के नाम हैं।
५९. सोलह तिर्यग् दिशाएं शकटोद्धि संस्थान वाली हैं । ऊंची और नीची-ये दो दिशाएं सीधे और ओंधे मुंह रखे हुए शरावों के आकार वाली हैं (शिरोमूल और पादमूल में संकरी तथा आगे विशाल)।
६०. भावदिशाएं अठारह हैंचार प्रकार के मनुष्य-सम्मूर्छनज, कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज तथा अन्तरद्वीपज । चार प्रकार के तिर्यञ्च-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय । चार प्रकार के काय-पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय तथा वायुकाय । चार प्रकार के अग्रबीज-अग्रबीज, मूलबीज, स्कन्धबीज तथा पर्वबीज । एक नारकों की दिशा तथा एक देवताओं की दिशा।
६१,६२. प्रज्ञापक दिशाएं अठारह हैं तथा भाव दिशाएं भी अठारह हैं। एक-एक प्रज्ञापक दिशा को अठारह भावदिशाओं से गुणन करने पर (१८x१८) तीन सौ चौबीस दिशाएं होती हैं । प्रस्तुत प्रसंग में प्रज्ञापक दिशाओं का अधिकार है। जीव और पुद्गलों की इन दिशाओं में गति और आगति होती है।
६३. कुछेक जीवों में ज्ञानसंज्ञा होती है और कुछेक में नहीं होती। वे नहीं जानते-मैं पूर्व जन्म में क्या था तथा मैं किस दिशा (जन्म) से आया हूं?
१. देखें-गाथा ५१ से ५८ ।
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