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निर्युक्तिपंचक
३८७. संजय नाम, गोत्र का वेदन करता हुआ भावसंजय होता है । भावसंजय से समुत्थित होने के कारण इस अध्ययन का नाम संजयीय हुआ है ।
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३८८३८९. कांपिल्यपुर नगर का राजा संजय सेना सहित मृगया के लिए निकला । वह घोड़े पर सवार होकर मृगों को केसर उद्यान की ओर खदेड़ कर ले गया। वहां एकत्रित मृग अत्यन्त भयभीत हो रहे थे । वह रसलोलुप राजा उन्हें वहां व्यथित करने लगा ।
३९०. वहां केसरउद्यान में दोषमुक्त गर्दभालि अनगार छाए हुए मंडप में ध्यान कर रहे थे । ३९१. घोड़े पर सवार राजा ने मुनि को देखा और आकुल व्याकुल होकर बोला- अहो ! खेद है, मैं अभी ऋषिहत्या से लिप्त हो जाता पर बच गया ।
३९२-९४. राजा घोड़े को छोड़कर अनगार के पास गया । विनम्रता से वन्दना करके अपराध के लिए क्षमा मांगने लगा । अनगार मौन धारण किए हुए थे इसलिए राजा को कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया । तब राजा इनके तेज-तप से घबराकर इस प्रकार बोला- 'भंते ! मैं कांपिल्यपुर का अधिपति हूं । मेरा नाम संजय है । मैं आपकी शरण में आया हूं । आप मुझे अपने तपोजनित तेज से न जलाएं ।'
३९५-९७. मुनि बोले— 'राजन् ! मैं तुझे अभय देता हूं। तुम इस पानी के बुद्बुदे के समान अनित्य मनुष्य जीवन में अपने दुःखजनक मरण को जानकर भी हिंसा को प्रश्रय देते हो । क्या यह उचित है ? संसार में सब कुछ छोड़कर एक दिन अवश्य जाना होगा। फिर इन किपाकफल के समान भोगों में क्यों आसक्त होते हो ?' राजा ने मुनि से धर्म का रहस्य जाना और समग्र वैभव से युक्त राज्य को छोड़कर प्रव्रज्या स्वीकार कर ली ।
३९८. बहुत वर्षों तक तपश्चरण के द्वारा सारे क्लेशों - राग-द्वेष आदि को नष्ट कर राजा ऐसे स्थान को प्राप्त हो गया, जहां जाकर किसी प्रकार का शोक नहीं करना पड़ता अर्थात् शारीरिक और मानसिक दुःखों से ग्रस्त नहीं होना पड़ता
उन्नीसवां अध्ययन : मृगापुत्रीय
३९९,४००. मृगा शब्द के चार निक्षेप हैं— नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य के दो भेद हैं-आगमतः, नो-आगमतः । नो-आगमतः के तीन भेद हैं- ज्ञशरीर, भव्यशरीर, तद्व्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त के तीन भेद हैं- एकभविक, बद्धायुष्क और अभिमुखनामगोत्र ।
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४०१. मृगा के आयु, नाम, गोत्र का वेदन करने वाली भावमृगा होती है । इसी प्रकार पुत्र शब्द के भी चार निक्षेप हैं ।
४०२. मृगादेवी महारानी के पुत्र बलश्री से यह अध्ययन समुत्पन्न हुआ इसलिए इसका नाम मृगापुत्रीय है ।
४०३-१०. सुग्रीव नगर में बलभद्र नाम का एक राजा था । उसकी पटरानी का नाम मृगावती था । उन दोनों के बलश्री नाम का पुत्र था । वह धीमान् वज्रऋषभसंहनन वाला तथा तद्भवमुक्तिगामी था । उसे युवराज बना दिया गया। वह विकसित हृदयवाला युवराज रमणीक और १. देखें परि० ६, कथा सं० ५८
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