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नियुक्तिपंचक
८२. नैगम नय के अनुसार परीषहोत्पादक द्रव्य ही परीषह है। संग्रह और व्यवहार नय के अनुसार वेदना परीषह है । ऋजुसूत्र नय जीव को परीषह मानता है क्योंकि वेदना जीव के ही होती है। शब्दनय-शब्द, समभिरूढ़ तथा एवंभूत नय आत्मा को परीषह मानते हैं।
५३. एक प्राणी में एक साथ उत्कृष्टरूप में बीस परीषह तथा जघन्यतः एक परीषह हो सकता है। शीत और उष्ण तथा चर्या और निषद्या-इन दोनों युगलों में से एक साथ एक-एक परीषह ही होता है।
८४. नेगम, संग्रह और व्यवहारनय के मतानुसार परीषहों का कालमान है-वर्षों का, ऋजुसूत्र के अनुसार अन्तर्मुहूर्त का और तीन शब्दनयों के अनुसार एक समय का है।
८५. सनत्कुमार चक्रवर्ती ने खाज, भोजन की अरुचि, अक्षिवेदना, कुक्षिवेदना, खांसी, श्वास और ज्वर-इन परीषहों को सात सौ वर्षों तक सहन किया।
८६. नेगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा से परीषह लोक, संस्तारक आदि स्थानों में होते हैं । शब्द, समभिरूढ़ तथा एवंभूत-इन तीन शब्द नयों की अपेक्षा से परीषह आत्मा में होते हैं।
८७. गुरु का (विवक्षित विषय का सामान्य रूप से निरूपक) वचन उद्देश कहलाता है। गुरुवचन के प्रति शिष्य की विशिष्ट जिज्ञासा पृच्छा कहलाती है। शिष्य के प्रश्न को उत्तरित करने वाला गुरु का निर्वचन निर्देश कहलाता है। निर्देश के अन्तर्गत बावीस परीषहों का उल्लेख है। अब सूत्रस्पर्श अर्थात् सूत्रालापक का प्रसंग है।
८८,८९. बावीस परीषहों के ये उदाहरण (कथानक) हैं-कुमारक, नदी, लयन, शिला, पंथ महल्लक, तापस, प्रतिमा, शिष्य, अग्नि, निर्वेद, मुद्गर, वन, राम, पुर, भिक्षा, संस्तारक, मल्लधारण, अंग, विद्या, श्रुत, भौम, शिष्य का आगमन ।
९०. उज्जयिनी में हस्तिमित्र नाम का गाथापति रहता था। उसका पुत्र था हस्तिभूति । दोनों प्रवजित हुए । एक बार वे दोनों उज्जयिनी से भोगपुर जा रहे थे । वृद्ध मुनि अटवी में क्षुधा परीषह से दुःखी हुआ । उसका प्रायोपगमन संथारे में देवलोक गमन ।'
९१. उज्जयिनी में धनमित्र वणिक था। उसके पुत्र का नाम था धनशर्मा । दोनों प्रवजित हए। एलकाक्षपथ के रास्ते में बाल मुनि ने प्यास से आर्त होने पर भी सचित्त जल नहीं पीया। तृषा परीषह सहन करते हुए वह दिवंगत हो गया।'
९२. राजगृह में चार मित्र आचार्य भद्रबाहु के शिष्य बने। वे सभी एकलविहार प्रतिमा स्वीकार कर विहरण करने लगे। राजगृह में पुनरागमन । उनका वैभारगिरि पर्वत की गुफा में स्थित भद्रबाह के दर्शनार्थ जाना। हेमंत ऋतु में शीत परीषह को सहनकर चारों रास्ते में समाधिस्थ हो गए।
१. देखें परि० ६, कथा सं०१ २. वही, कथा सं० २
३. वही, कथा सं. ३ ४. वही, कथा सं०४
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