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निर्युक्तिपंचक
१७२/१०. दशपुर नगर के इक्षुगृह में आर्यरक्षित घृतपुष्यमित्र, वस्त्रमित्र, दुर्बलिका पुष्यमित्र गोष्ठा माहिल आदि शिष्यों के साथ विराजमान । आठवें तथा नवें पूर्व की वाचना । विध्य द्वारा जिज्ञासा ।
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१७२।११. जैसे कंचुकी पहने हुए पुरुष से कंचुकी स्पृष्ट होने पर भी बद्ध नहीं है, वैसे ही कर्म जीव से स्पृष्ट होने पर भी बद्ध नहीं होते ।
१७२।१२. जो प्रत्याख्यान अपरिमाण अर्थात् तीन करण तीन योग से यावज्जीवन के लिए किया जाता है, वह श्रेयस्कर है । परिमित समय के लिए किया गया प्रत्याख्यान आशंसा के दोष से दूषित होता है ।
१७२।१३. रथवीरपुर नगर के दीपक उद्यान में आचार्य कृष्ण के पास शिवभूति ने दीक्षा स्वीकार की । गुरु से जिनकल्पी सम्बन्धी उपधि का विवेचन सुनकर शिवभूति द्वारा जिज्ञासा, गुरु
का समाधान ।
१७२ १४,१५. गुरु द्वारा प्रज्ञप्त सिद्धान्त पर उसे विश्वास नहीं हुआ । रथवीरपुर नगर में बोटिक शिवभूति द्वारा बोटिक नामक मिथ्यादृष्टि का प्रवर्त्तन हुआ । उसके कौडिन्न और कोट्टवीर नामक दो शिष्य हुए। यह परम्परा आगे भी चली। चौथा अध्ययन : असंस्कृत
१७३. अप्रमाद शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव ।
१७४. प्रमाद के पांच प्रकार हैं- मद्य, विषय, कषाय. निद्रा और विकथा । ठीक इनके विपरीत अप्रमाद है ।
१७५. इस अध्ययन में पांच प्रकार के प्रमाद और पांच प्रकार के अप्रमाद का वर्णन है अतः इस अध्ययन का नाम प्रमादाप्रमाद है ।
१७६. जो कुछ उत्तरकरण' के द्वारा किया जाता है, उसे संस्कृत जानना चाहिए । शेष सारा असंस्कृत अर्थात् संस्कार के लिए अनुपयुक्त होता है । यह असंस्कृत की नियुक्ति है ।
१७७. करण शब्द के छह निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ।
१७८. द्रव्यकरण के दो प्रकार हैं- संज्ञाकरण और नोसंज्ञाकरण । संज्ञाकरण के उदाहरण - कटकरण, अर्थकरण - सिक्कों की निर्वर्तक अधिकरणी आदि, वेलूकरण - रूई की पूणी का निर्वर्तक चित्राकारमय वेणुशलाका आदि ।
- १७९. नोसंज्ञाकरण के दो भेद हैं-प्रयोगकरण तथा विस्रसाकरण । विस्रसाकरण के दो प्रकार हैं- सादिक और अनादिक ।
१८०. धर्म, अधर्म और आकाश - ये तीनों परस्पर संवलित होने के कारण सदा अवस्थित रहते हैं अतः अनादिकरण हैं । चक्षुस्पर्श (स्थूल परिणति वाले पुद्गलद्रव्य) तथा अचक्षुस्पर्श (सूक्ष्म परिणति वाले पुद्गलद्रव्य ) - ये दो सादिकरण हैं ।
३.
१. देखें परि ६, कथा सं. ४२ ।
२. वही, कथा सं. ४३ ।
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अपने मूल हेतुओं से उत्पन्न वस्तु का उत्तरकाल में विशेष संस्कार करना उत्तरकरण है ।
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