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नियुक्तिपंचक
१८८. आकाश के बिना कुछ भी निर्वर्तित नहीं होता अत: आकाश ही क्षेत्र है। व्यञ्जनपर्याय' को प्राप्त इक्षुक्षेत्रकरण आदि के बहुत प्रकार हैं । यह क्षेत्रकरण है।
१८९. जिस क्रिया के लिए जितना काल अपेक्षित होता है, वह उसका कालकरण है। अथवा जिस-जिस काल में जो करण निष्पन्न होता है, वह उसका कालकरण है। यह कालकरण का सामान्य उल्लेख है। नाम आदि के आधार पर कालकरण ग्यारह प्रकार का है। १९०,१९१. ग्यारह करण ये हैं१. बव ५. गरादि
९. चतुष्पद २. बालव ६. वणिज
१०. नाग ३. कोलव ७. विष्टि
११. किंस्तुध्न । ४. स्त्रीविलोकन
८. शकुनि इनमें प्रथम सात चल हैं और अंतिम चार ध्रव हैं।
१९२. कृष्णपक्ष की चतुर्दशी की रात्रि में सदा 'शकुनि' करण होता है। उसके पश्चात अमावस्या के दिन में 'चतुष्पद' करण तथा रात्री में 'नाग' करण होता है। प्रतिपदा (एकम) के दिन 'किंस्तुघ्न' करण होता है ।
१९२११. शुक्लपक्ष में तिथि को दो से गुणा करके उसमें से दो घटाकर सात का भाग देने से जो शेष बचे, वह दिन का करण होगा। रात्रि में इसी विधि से एक जोड़ने पर वह रात्रि का करण
होगा।'
१९३,१९४. भावकरण के दो प्रकार हैं-जीवविषयक भावकरण तथा अजीवविषयक भावकरण । अजीवकरण के पांच प्रकार हैं ---- (१) वर्णविषयक, (२) रसविषयक, (३) गन्धविषयक. (४) स्पर्श विषयक तथा (५) संस्थानविषयक । वर्ण के पांच प्रकार, रस के पांच प्रकार, गन्ध के दो प्रकार, स्पर्श के आठ प्रकार तथा संस्थान के पांच प्रकार हैं। ये सभी करण के विषय है. अन्तःकरण के भी इतने ही भेद हो जाते हैं।
१९५. जीवकरण के दो प्रकार हैं-श्रुतकरण और नोश्रुतकरण । श्रुतकरण दो प्रकार का है- बद्धश्रत और अबद्धश्रुत । बद्धश्रुत के दो भेद हैं--निशीथ तथा अनिशीथ ।' अबद्धश्रत के दो प्रकार हैं-लौकिक और लोकोत्तर।
१. व्यञ्जनं-शब्दस्तस्य पर्याय:-अन्यथा च
भवनं-व्यञ्जनपर्यायः तमापन्नं-प्राप्त व्यञ्जनपर्यायापन्नम् । (शांटीप. २०२) २. 'बव' आदि सात करणों की व्याख्या के लिए
देखें-शांटीप. २०३।। ३. जैसे शुक्लपक्ष की चतुर्थी का करण जानना
है--४४२८ -२-६-७ शेष ०-६ । अतः छठा करण है 'वणिज'। रात्रि में एक
बढाने से इससे अगला करण है 'विष्टि'।
(शांटीप. २०३) ४. वृत्तिकार (पत्र २०४) ने इनके लौकिक और
लोकोत्तर-दो भेद किए हैं। निशीथ के भेद में निशीथ सूत्र को लोकोत्तर तथा बृहदारण्यक को लौकिक माना है। अनिशीथ में आचारांग आदि को लोकोत्तर तथा पुराण
आदि लौकिक हैं। ५. देखें शांटीप. २०४ ।
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