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नियुक्तिपंचक ८. उन्माद—कार्य और अकार्य का ज्ञान न रहना तथा निरर्थक बकवास करना। ९. तद्भाव हर वस्तु में प्रिय का चिंतन करके उसका आलिंगन आदि करना। १०. मरण-उसकी याद में प्राण-परित्याग कर देना।
चूर्णिकार ने मरण को नौवीं तथा तद्भाव को दसवीं अवस्था स्वीकार किया है किन्तु टीकाकार हरिभद्र ने तद्भाव को नौवीं तथा मरण को दसवीं अवस्था के रूप में स्वीकार किया है। अवस्थाओं की दृष्टि से टीकाकार हरिभद्र का कम अधिक संगत लगता है।
बृहत्कल्प भाष्य में असंप्राप्त काम के दस लक्षणों का वर्णन कुछ अंतर के साथ मिलता है:१. चिन्ता
६. सभी विषयों के प्रति चित्त में अरुचि २. प्रिय को देखने की इच्छा
७. मूर्छा ३. स्मृति में दीर्घ नि:श्वास छोड़ना ८. उन्माद ४. कामज्वर
९. बेभान होना ५. दाह का अनुभव
१०. मरण। उत्तराध्ययन की सुखबोधाटीका में इन अवस्थाओं का विस्तार से वर्णन है। स्थानांग टीका में काम के अभिलाषा, चिंता, सततस्मरण, उत्कीर्तन, उद्वेग, प्रलाप, उन्माद, व्याधि, जड़ता और मृत्यु ये दश भेद मिलते हैं। वात्स्यायन ने कामसूत्र में काम के दस स्थान बताए हैं, उनमें शाब्दिक भिन्नता पर यदि ध्यान न दिया जाए तो अर्थ की दृष्टि से ये असंप्राप्त काम के संवादी हैं। १. आंखों में प्रेम की झलक।
६. लज्जा का भाग जाना। २. चित्त की आसक्ति।
७. अन्य विषयों में मन नहीं लगना। ३. संकल्प की उत्पत्ति।
८. उन्माद। ४. निद्रा का भाग जाना।
९. मूर्छा। ५. काम-भावना से दुर्बलता का अनुभव। १०. मृत्यु। नियुक्तिकार ने संप्राप्त काम के १४ भेदों का उल्लेख किया है - १. दृष्टिपात
८. नखनिपात २. दृष्टि सेवा (निरंतर उसी को देखना) ९. चुम्बन ३. संभाषण
१०. आलिंगन ४. प्रणय प्रकट करने के लिए मुस्कराना ११. आदान-~-गोद में बिठाना ५. गीत, नृत्य आदि करना
१२. करण-वस्त्र रहित करना ६. अवगूहन
१३. आसेवन ७. आपस में दांत मिलाना
१४. रतिक्रीड़ा
१. दशअचू पृ. १४२, हाटी प. १९४ । २. बृभा २२५८; चिंता य दटुमिच्छइ, दीहं नीससइ तह जरो दाहो।
चित्तअरोयग मुच्छा, उम्मत्तो न याणई मरणं।। ३. उसुटी प. ८५ । ४. स्थाटी प. ४२३, ४२४ ।
५. कामसूत्र ५/१/२, ३, चक्षुःप्रीति: मन:संग:
संकल्पोत्पत्ति र्निद्राच्छेद: तनुता विषयेभ्यो व्यावृत्ति: लज्जाप्रणाश: उन्माद: मूर्छा-मरण
मिति तेषां लिंगानि। ६. दशनि २३८, २३९ ।
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