________________
निर्युक्ति पंचक
आगमों में आसुरी दिशा का उल्लेख भी मिलता है। नारकीय दिशा आसुरिका दिशा कहलाती है । भवनपति तथा व्यन्तर देवों से सम्बन्धित दिशा को भी आसुरी या आसुरिका दिशा कहा जाता है । ' आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार रौद्रकर्मकारी मनुष्य असुर होते हैं । वे अपनी आसुरी वृत्ति के कारण उस दिशा में जाते हैं, जहां क्रोध और रौद्र कर्म के परिणाम भुगतने की परिस्थितियां होती हैं । उत्तराध्ययन में हिंसक, असत्यभाषी, ठग तथा मांसाहार जैसे क्रूर कर्म करने वाले को आसुरी दिशा में जाने वाला बतलाया है। सूयगडो के अनुसार हिंसापरायण आत्मघाती, विजन में लूटने वाले व्यक्ति चिरकाल तक आसुरी -- नरकदिशा में रहते हैं।
१०४
बृहत्कल्पभाष्य और आवश्यकनियुक्ति की हारिभद्रीय टीका में शव के परिष्ठापन के प्रसंग में दिशाओं के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है । शव के परिष्ठापन के लिए दक्षिण-पश्चिमदिशा अर्थात् नैर्ऋती दिशा को श्रेष्ठ माना है। उसके अभाव में दक्षिण, उसके अभाव में पश्चिम, उसके अभाव में आग्नेयी (दक्षिण पूर्व), उसके अभाव में वायव्य ( पश्चिम उत्तर ), उसके अभाव में पूर्व, उसके अभाव में उत्तर तथा उसके अभाव में उत्तरपूर्व दिशा का उपयोग करना चाहिए। किस दिशा में मृतक साधु का शव परिष्ठापित करने का क्या असर होता है, इसका वर्णन व्याख्या साहित्य में मिलता है । नैर्ऋत दिशा में शव का परिष्ठापन करने से अन्न-पान और वस्त्र का प्रचुर लाभ होता है और समूचे संघ में समाधि होती है। दक्षिण दिशा में परिष्ठापन करने से अन्न-पान का अभाव होता है । पश्चिम दिशा में उपकरणों की प्राप्ति दुर्लभ होती है, आग्नेयी दिशा में परिष्ठापित करने से साधुओं में परस्पर तू-तू, मैं-मैं होती है। वायव्य दिशा में साधुओं में परस्पर तथा गृहस्थ एवं अन्यतीर्थिकों के साथ ह होता है । पूर्वदिशा में परिष्ठापन गण-भेद एवं चारित्र - भेद का कारण बनता है । उत्तरदिशा में करने से रोग तथा पूर्वउत्तर दिशा में परिष्ठापन करने से अन्य कोई साधु मृत्यु को प्राप्त होता है । दिशाएं और वास्तुशास्त्र
वास्तुशास्त्र दिशाओं पर आधारित विद्या विशेष है, जिसमें दिशाओं के आधार पर गृह आदि का निर्माण एवं उसके प्रभाव पर विस्तार से चिंतन किया गया है। वास्तुशास्त्र में आठ दिशाओं का उल्लेख मिलता है—१. पूर्व २. पश्चिम ३. उत्तर ४. दक्षिण ५. ईशाणकोण, ६. अग्निकोण, ७. नैर्ऋतकोण ८. वायव्य कोण । वास्तु- विशेषज्ञों के अनुसार पूर्वदिशा अग्नितत्त्व को इंगित करने वाली दिशा है। पश्चिम दिशा वायु तत्त्व को इंगित करती है । इसका स्वामी वरुण है । इस दिशा का प्रभाव अस्थिर एवं चंचल माना गया है। उत्तरदिशा में जल तत्त्व विद्यमान रहता है। इस दिशा का स्वामी कुबेर है । वास्तु-शास्त्री चिंतन-मनन के लिए उत्तरदिशा को उत्तम मानते हैं क्योंकि यह दिशा ध्रुव तारे की भांति स्थिरता की द्योतक है। दक्षिण दिशा में पृथ्वी तत्त्व माना है, जिसका स्वामी यम है। ईशाण कोण को वास्तु शास्त्र में ईश्वर तुल्य महत्त्व दिया गया है क्योंकि यह उत्तर और पूर्व दो शुभ दिशाओं के मध्य है ।
१. सूयगडो भाग १ पृ. १२० ।
२. उ. ७/५-१० ।
३. सू. १/२/६३ ।
४. आवहाटी २ पृ. ९३, ९४ ।
Jain Education International
५. बृभा ५५०५, ५५०६;
चेव ।।
दिस अवरदक्खिणा दक्खिणा य अवरा य दक्खिणापुव्वा । अवरुत्तरा य पुव्वा, उत्तर पुव्वुत्तरा समाही य भत्तपाणे, उवकरणे तुमतुमा य कलहो य । भेदो गेलन्नं वा, चरिमा पुण कड्ढए अण्णं ।।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org