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दशवकालिक नियुक्ति
१०१ ३२५. इस अध्ययन में कथित गुणों वाला व्यक्ति भावभिक्षु होता है और इन गुणों से रहित मुनि भावभिक्ष नहीं होता--यह प्रतिज्ञा वाक्य है। हेतु है-अगुणत्वात्-मुनि के योग्य गुणों का अभाव होने से और दृष्टान्त है-सुवर्ण । ३२६. स्वर्ण के आठ गुण हैं---
१. विषघाति-विष को नष्ट करने में समर्थ । ९. रसायन-वयस्तंभन करने वाला। ३. मंगलार्थ मांगलिक प्रयोजनों में प्रयुक्त। . ४. विनीत--परिवर्तित होने की क्षमता । ५. प्रदक्षिणावर्त्त--तप्त होने पर जिसका आवर्त दक्षिण की ओर हो । ६. गुरुक - सारसंपन्न । ७. अदाह्य- अग्नि में न जलने वाला।
८. अकुथनीय - कभी कुथित न होने वाला।
३२७. जो स्वर्ण कष, छेद, ताप और ताडना-इन चार कारणों से परिशुद्ध होता है, वही विषघातक, रसायन आदि गुणों से युक्त होता है ।
३२८. जो समस्त गुणों से समन्वित होता है, वही स्वर्ण होता है। जो कष, छेद आदि से परिशुद्ध नहीं होता, वह युक्तिसुवर्ण-कृत्रिम स्वर्ण होता है। इसी प्रकार नाम और रूप मात्र से मुनिगुणों से विकल कोई भी मुनि भिक्षु नहीं होता।
३२९ युक्तिसुवर्ण अर्थात कृत्रिम स्वर्ण को भी जात्य स्वर्ण के वर्ण जैसा कर दिया जाता है. पर उसमें शेष गुण कप, छेद आदि न होने से वह यथार्थ में सोना नहीं होता।
३३०. प्रस्तुत अध्ययन में भिक्षु के जो गुण बताए गए हैं, उनके द्वारा ही वह भावभिक्ष होता है। पीत वर्ण वाले जात्यस्वर्ण में अन्यान्य गुण होने से ही वह शुद्ध स्वर्ण होता है ।
३३१. जो भिक्षु भिक्षु-गुणों से शून्य है, वह भिक्षा ग्रहण करने मात्र से भिक्षु नहीं हो जाता। जैसे कष आदि गुणों के अभाव में वर्णवान् कृत्रिम स्वर्ण शुद्ध स्वर्ण नहीं हो जाता ।
३३२. जो उद्दिष्टकृत भोजन करता है, षड्जीवनिकाय की हिंसा करता है तथा प्रत्यक्षतः सजीव जल पीता है, वह भिक्ष कैसे हो सकता है ?
३३३. इसलिए इस अध्ययन में भिक्षु के जो गुण बतलाए हैं, उन गुणों से युक्त मुनि ही भावभिक्ष होता है। वह उन मूल और उत्तर गुणों की आराधना से भाविततर-चारित्रधर्म में भावित होता है। प्रथम चूलिका : रतिवाक्या
३३४. 'चूडा' शब्द के चार निक्षेप हैं-द्रव्यचूडा, क्षेत्रचूडा, कालचूडा और भावचूडा । दशवकालिक श्रुत का यह 'उत्तरतंत्र' है। इसमें दशवकालिक श्रत से ही अर्थ का ग्रहण तथा संग्रहणी-उक्त तथा अनुक्त अर्थ का संक्षिप्त संग्रह है।
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