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नियुक्तिपंचक पहचान से अपने मार्ग पर आगे बढ़ता जाता था। दिग्भ्रम न हो इस दृष्टि से ये मार्ग विशेष रूप से मरुप्रदेश में बनाए जाते थे, जहां बालू के टीलों की अधिकता
होती थी। १०. अजमार्ग इतना संकरा पथ, जिसमें केवल अज (बकरी) या बछड़े के चलने जितनी पगडंडी
मात्र होती थी। यह मार्ग विशेषत: पहाड़ों पर होता था, जहां बकरों या भेड़ों पर यातायात किया जाता था। इसे मेंढपथ भी कहा जाता था। इन मार्गों पर दो व्यक्ति एक साथ नहीं चल सकते थे। टीकाकार के अनुसार चारुदत्त इसी मार्ग से स्वर्णभूमि पहुंचा था। चूर्णिकार ने इसे लोहे से जटिल पथ माना है, यह पथ
स्वर्णभूमि में था। ११. पक्षिपथ- भारुण्ड आदि विशालकाय पक्षियों के सहारे होने वाला आकाशमार्गीय यातायात।
यह मार्ग सर्वसुलभ नहीं था। ऐसा संभव लगता है कि मांत्रिक या तांत्रिक लोग इन विशालकाय पक्षियों का उपयोग वाहन के रूप में करते थे। आज भी शतुर्मुर्ग का वाहन के रूप में उपयोग किया जाता है। पाणिनी का हंसपथ, महानिद्देस का शकुनपथ और कालिदास का खगपथ और सुरपथ इसी पक्षिपथ के
वाचक हैं। १२. छत्रमार्ग ऐसा मार्ग, जहां छत्र के बिना आना-जाना निरापद नहीं होता था। संभव है यह .
जंगल का मार्ग हो, जहां हिंस्र पशुओं का भय रहता हो। पशु छत्ते के डर से इधर-उधर भाग जाते अथवा धूप से रक्षा के लिए इनका उपयोग किया जाता था।
जहाज नौका आदि से यातायात करने का मार्ग।५ इसे वारिपथ भी कहा जाता था। १४. आकाशमार्ग—चारणलब्धि सम्पन्न मुनियों, विद्याधरों तथा मंत्रविदों के आने-जाने का मार्ग । इसे
देवपथ' भी कहा जाता था। प्राचीनकाल में रथ के लिए विशिष्ट मार्ग बनाए जाते थे, जो चौड़े और समतल होते थे। शकट संकरे मार्ग पर भी चल सकते थे। उत्पथ पर तीव्र गति से शकट चलाने पर वे भग्न हो जाते थे। जल को पार करने हेतु भस्त्रा का प्रयोग किया जाता था। चमड़े को सीकर उसमें हवा भर दी जाती थी, जो डनलप के चक्रों के समान पानी पर तैरती थी। भस्त्रा से रास्ता तय करने वाले को भास्त्रिक कहते थे। धार्मिक संस्कृति
. आगम-साहित्य को पढ़ने से तत्कालीन देश, काल और संस्कृति का ज्ञान हो जाता है क्योंकि वे विस्तृत शैली में लिखे गए हैं। नियुक्तिकार का मूल लक्ष्य सूत्र में आए पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या करना था अत: उन्होंने सलक्ष्य इस विषय में कोई रुचि नहीं ली किन्तु प्रसंगवश धर्म, समाज, राजनीति,
१३. जलमार्ग
१. सूटी पृ. १३१; कीलकमार्गो यत्र बालुकोत्कटे मरकादिविषये ५. सूटी पृ. १३१; जलमार्गे यत्र नावादिना गम्यते। कीलकाभिज्ञानेन गम्यते।
६. सूचू १ पृ. १९४; आगासमग्गो चारण-विज्जाहराणं । २. सूटी पृ. १३१।
७. दशअचू पृ. ५२। ३. सूचू १ पृ. १९४।।
८. महाभाष्य ४/४/१६ । ४ सूटी पृ. १३१, छत्रमार्गो यत्र छत्रमन्तरेण गंतु न शक्यते। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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