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नियुक्तिपंचक
१२०. जैसे इस अध्ययन में एषणा समिति के विषय में मुनि आचरण करते हैं, वैसे ही ईर्या समिति आदि तथा समस्त श्रमण धर्म के विषय में मुनि यतनाशील रहते हैं। परमार्थ रूप में मुनि बस और स्थावर प्राणियों के हित के लिए यतनाशील होते हैं।
१२०११. यह उपसंहार-विशुद्धि समाप्त है । अब निगमन का अवसर है । वह इस प्रकार है- 'इसलिए मुनि मधुकर के समान कहे गए हैं।
१२०१२. इसलिए दया आदि गुणों में सुस्थित तथा भ्रमर की तरह अवधजीवी मुनियों के द्वारा प्रतिपादित धर्म ही उत्कृष्ट मंगल है ।
१२०१३,४. निगमन-शुद्धि इस प्रकार है-चरक, परिव्राजक आदि अन्यतीथिक भी धर्म के लिए उद्यतविहारी हैं, फिर वे साधु क्यों नहीं हैं ? इसका उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि अन्यतीथिक पृथ्वी आदि छह काय की यतना नहीं जानते और ज्ञान के अभाव में तदनुरूप आचरण भी नहीं करते । वे न उद्गम आदि दोषों से रहित शुद्ध भोजन ग्रहण करते हैं, न भ्रमर की तरह प्राणियों के अनुपरोधी होते हैं और न मुनियों की भांति सदा तीन गुप्तियों से गुप्त होते हैं। (इसलिए वे साधु की श्रेणी में नहीं आते ।)
१२१. मुनि शरीर, वाणी, मन तथा पांचों इंद्रियों का दमन करते हैं । वे ब्रह्मचर्य को धारण करते हैं तथा कषायों का नियमन करते हैं।
१२२. जो मुनि तप में उद्यमशील हैं तथा साधु-लक्षणों से परिपूर्ण हैं वे ही 'साधु' शब्द से अभिहित किए जाते हैं । यह निगमन वाक्य है ।
१२३. प्रस्तुत अध्ययन के अर्थाधिकार के दश अवयव ये हैं-१. प्रतिज्ञा २. प्रतिज्ञाविभक्ति . हेतु ४. हेतुविभक्ति ५. विपक्ष ६. प्रतिषेध ७. दृष्टांत ८ आशंका ९. आशंका-प्रतिषेध और १०. निगमन ।
१२३।१. 'धर्म उत्कृष्ट मंगल है'यह प्रतिज्ञा है। यह आप्तवचन का निर्देश है। वह धर्म इस जिनमत में ही है अन्यत्र नहीं, यह प्रतिज्ञाविभक्ति है।
१२३१२. 'देवों द्वारा पूजित'-यह हेतु है। जो व्यक्ति उत्कृष्ट धर्म में स्थित है, वे ही देवों द्वारा पूज्य हैं । जो व्यक्ति निष्कषाय हैं और जीवों को पीड़ा नहीं पहुंचाते हए जीते हैं वे ही परम धर्मस्थान में स्थित हैं --यह हेतुविभक्ति है ।
१२३१३. जो जिनवचनों के प्रति प्रद्विष्ट हैं, अधर्मरुचि वाले हैं तथा जो श्वसुर, माता, पिता आदि ज्येष्ठ जन हैं, इन सबको व्यक्ति मंगलबुद्धि से नमस्कार करता है, यह आद्यद्वय-प्रतिज्ञा और प्रतिज्ञाशुद्धि का विपक्ष है।
१२३।४. यज्ञ-याग करने वाले भी देवों द्वारा पूजे जाते हैं - यह हेतु और हेतशुद्धि का विपक्ष है। बुद्ध, कपिल आदि भी देवपूजित कहे जाते हैं-यह ज्ञात-दृष्टांत प्रतिपक्ष है।
१२३।५. इन चार अवयवों का प्रतिपक्ष पांचवां अवयव है-'विपक्ष' । इसके बाद विपक्षप्रतिषेध नामक छठा अवयव कहूंगा।
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