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नियुक्तिपंचक १५०. जो अर्थबहुल, महान् अर्थ का घोतक, हेतु तथा निपात और उपसर्गों से युक्त होने के कारण गंभीर, अपरिमित पादवाला, अव्यवच्छिन्न तथा गम (अक्षरों का उच्चारण) और नयों से शुद्ध हो-वह चौर्णपद कहलाता है।'
१५१. इन्द्रिय, विषय, कषाय, परीषह, वेदना तथा उपसर्ग-ये अपराधपद हैं। अज्ञानी व्यक्ति इनमें विषाद को प्राप्त होते हैं।
१५१३१. जिनेश्वर भगवान् ने अठारह हजार शीलांगों (भाव समाधि के भेदों अथवा कारणों) की प्ररूपणा की है। उनकी रक्षा के लिए अपराधपदों का वर्जन करना चाहिए।
१५२. अठारह हजार शीलांगों की निष्पत्ति के आधारभूत तत्व ये हैं-योग तीन, करण तीन, संज्ञा चार, इंद्रिय पांच, भौम आदि पांच स्थावर तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय तथा अजीवनिकाय और दस प्रकार के श्रमण धर्म । तीसरा अध्ययन : क्षुल्लिकाचारकथा
१५३. नाम महद्, स्थापना महद्, द्रव्य महद्, क्षेत्र महद्, काल महद्, प्रधान महद्, प्रतीत्य महद् तथा भाव महद्-ये महद् के निक्षेप हैं । इनके प्रतिपक्षी क्षुल्लक होते हैं।
१५४. यहां प्रतीत्य-क्षुल्लक आचार का अधिकार है। आचार के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव ।
१५५. द्रव्य आचार अर्थात् द्रव्य का उस-उस अवस्था में परिणमन । द्रव्य आचार के छह प्रकार हैं-नामन (झकना), धावन (धोना), वासन (सुगंध देना), शिक्षापण (शिक्षण), सुकरण (सरलता से रूपान्तरित करना), अविरोध (अविरुद्ध मिश्रण-गुड़, दही आदि का)।
१५६. भाव आचार के पांच प्रकार हैं - दर्शन आचार, ज्ञान आचार, चारित्र आचार, तप आचार तथा वीर्य आचार ।
१५७. दर्शन आचार के आठ प्रकार हैं- नि:शंकित, नि:कांक्षित, निविचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपबृंहण, स्थिरीकरण. वात्सल्य और प्रभावना।
१५७.६१. अतिशेष अर्थात अवधि आदि ज्ञान से युक्त, ऋद्धि सम्पन्न, आचार्य, वादी, धर्मकथक, क्षपक, नैमित्तिक, विद्यासिद्ध, राजसम्मत और गणसम्मत व्यक्ति तीर्थ की प्रभावना करते हैं।
१५८. ज्ञान आचार के आठ प्रकार हैं-काल, विनय, बहुमान, उपधान, अनिण्हवण, व्यंजन, अर्थ और तदुभय।
१५९. चारित्र आचार के आठ प्रकार हैं-पांच समितियों तथा तीन गुप्तियों से प्रणिधानयोगयुक्त होना।
१६०. तीर्थंकरों द्वारा दृष्ट, बाह्य और आभ्यन्तर भेदों से प्ररूपित बारह प्रकार के तप में अग्लान और निस्पृह रहना तप आचार है।
ब्रह्मचर्याध्ययनपदवदिति, पत्र ८८ ।
१. वृत्तिकार ने ब्रह्मचर्य अध्ययन अर्थात्
आचारांग को चौर्णपद माना है-चौर्णपदं
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