________________
दशवकालिक नियुक्ति
८९. दूसरा प्रतिज्ञा-वचन है-जिन शासन में प्रवजित मुनि धर्मोपदेश करते हैं। उसका हेतुवचन है—'क्योंकि वे पारमार्थिक अहिंसा आदि तत्त्वों के आचरण में प्रयत्नशील रहते हैं।
८९.१. जैसे जिन शासन में निरत मुनि शुद्ध धर्म का पालन करते हैं, वैसे धर्म की परिपालना के उपाय अन्यतीथिकों में नहीं देखे जाते ।
८९।२. उन अन्यतीथिकों में भी धर्म शब्द प्रचलित है और वे अपने-अपने धर्म की प्रशंसा भी करते हैं किंतु जिनेश्वर भगवान् ने कुतीथिकों के धर्म को सावध बताया है।
८९.३. अन्यतीथिकों में जो धर्म शब्द है, वह मात्र औपचारिक है। निश्चय धर्म तो जिनशासन में ही है। जैसे-सिंह शब्द प्रधानतः सिंह के अर्थ में ही प्रयुक्त होता है पर उपचार से इसका प्रयोग अन्यत्र किसी नाम आदि में भी होता है।
९०. जिनेश्वर भगवान के शासन में प्रव्रजित मुनि भक्त, पान, उपकरण, वसति, शयन, आसन आदि में यतना का व्यवहार करते हैं तथा वे प्रासुक, अकृत, अकारित, अननुमत और अनुद्दिष्ट भोजी होते हैं।
९१. (चरक आदि) अन्यतीथिक अप्रासुक, कारित, अनुमत और उद्दिष्ट भोजी होते हैं तथा वे अकुशल व्यक्ति त्रस और स्थावर के हिंसा-जनित पापकर्म से लिप्त होते हैं।
९२,९३. उदाहरणदेश में भ्रमर का उदाहरण दिया जाता है। जैसे---चन्द्रमुखी दारिका--- बालिका का मुंह चन्द्रमा जैसा है। यहां दृष्टान्त में चन्द्रमा के सौम्यत्व का अवधारण है पर उसके शेष धर्म-कलङ्क आदि का ग्रहण नहीं है। इसी प्रकार भ्रमर के उदाहरण में उसकी अनियतवृत्तित्व का ग्रहण है, शेष धर्मों का नहीं। यह दृष्टांत-विशुद्धि सूत्रकथित है और यह दूसरी दृष्टान्त-विशुद्धि सूत्रस्पशिकनियुक्ति में भी निर्दिष्ट है।
९४. कोई व्यक्ति यह कहे कि गृहस्थ सुविहित श्रमणों के लिए ही रसोई करते हैं, भोजन बनाते हैं अतः सुविहित श्रमण यदि वह भिक्षा ग्रहण करते हैं तो वे 'पाकोपजीवी' होने के कारण हिंसाजन्य दोष से लिप्त होते हैं । (इसके उत्तर मे कहा गया--)
९५. तृणों के लिए वर्षा नहीं होती, मृगकुल के लिए तृण नहीं बढ़ते और भ्रमरों के लिए शतशाखी बृक्ष पुष्पित नहीं होते। इसी प्रकार गृहस्थ भी साधु के लिए भोजन नहीं बनाते।
९५१. अग्नि में घी की आहुति डाली जाती है । उससे प्रसन्न होकर सूर्यदेव लोकहित के लिए वर्षा करता है और उस वर्षा से औषधियां उत्पन्न होती हैं।
९५२,३. होम करने से वर्षा होती है तो फिर दुर्भिक्ष क्यों होता है ? यदि दुभिक्ष का निमित्त दुरिष्ट (बुरा नक्षत्र) या अविधि से किया यज्ञ है तो सब जगह दुभिक्ष क्यों होता है ? (दुरिष्ट तो नियत देश में होता है)। यदि वर्षा का कारण इन्द्र है तो क्या निर्धात, दिग्दाह आदि से इन्द्र के काम में विघ्न होता है ? मानना चाहिए कि वर्षा ऋतु के अनुसार ही होती है। वह धान्य, तृण आदि के लिए नहीं होती।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org