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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण
के भिन्न-भिन्न पाठ भी मिलते हैं, जैसे – गजपुर - गयपुर, तित्थगर - तित्थयर आदि ।
हमने प्रायः व्यंजनों के पाठान्तर
नहीं लिए हैं, जैसे
सोधी > सोही ।
ध > ह - तध > तह, भ > ह - भू > पहू,
विभू >
विहू ।
कग
एक
एग।
त > य --
तात > ताय, जात
जाय ।
मात्रा संबंधी पाठान्तरों का भी कम उल्लेख किया है
कहइ > कहई, देंति > दिंति, तेणोत्ति > तेणुत्ति आदि ।
हस्तप्रतियों में अनेक गाथाओं के आगे 'दारं' का उल्लेख है पर उन सबको द्वारगाथा नहीं माना जा सकता। फिर भी यदि एक भी प्रति में 'दारं' का उल्लेख है तो उस गाथा के आगे हमने 'दारं' का संकेत कर दिया है ।
उत्तराध्ययननिर्युक्ति में जहां निक्षेपपरक संवादी गाथाएं हैं, वहां लिपिकार ने गाथा पूरी न लिखकर केवल गाथा का संकेत मात्र कर दिया है पर हमने उन गाथाओं की पूर्ति कर दी है । ऐसा संभव लगता है कि समान पाठ होने के कारण लिपिकार ने अपनी सुविधा के लिए उसका संकेत मात्र कर दिया। फिर भी आगम-साहित्य की भांति नियुक्तियों में न जाव, वण्णग या जहा का प्रयोग हुआ और न ही अधिक संक्षेपीकरण हुआ ।
गाथा - निर्धारण में हमने इस बात का पूरा ध्यान रखा है कि जो भी गाथाएं नियुक्ति की भाषाशैली से प्रतिकूल या विषय से असंबद्ध लगीं, उन्हें मूल क्रमांक के साथ नहीं जोड़ा है। ऐसी गाथाओं के बारे में हमने नीचे आलोचनात्मक टिप्पणी लिख दी है कि किस कारण से गाथा निर्युक्ति की न होकर बाद में प्रक्षिप्त हुई अथवा भाष्य - गाथा के साथ जुड़ गयी है ।
शोधविद्यार्थियों के लिए प्रत्येक शब्द की सूची का महत्त्व है पर नियुक्तिपंचक में हमने केवल महत्त्वपूर्ण एवं पारिभाषिक शब्दों का ही अनुक्रम परिशिष्ट सं. १२ में दिया है। सभी शब्दों की सूची देने से पुस्तक का कलेवर बढ़ जाता तथा अनेक विशेषण, क्रियाविशेषण, निपात एवं धातुओं की पुनरुक्ति भी होती। अन्य अनुदित आगमों की भांति नियुक्तिपंचक में हर पारिभाषिक शब्द पर टिप्प्णी प्रस्तुत नहीं की है। कहीं-कहीं विमर्शनीय शब्द पर पादटिप्पण में ही संक्षिप्त टिप्पणी दे दी है।
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निर्युक्तिपंचक में जो गाथाएं आपस में संवादी थीं, उनको हमने तुलनात्मक परिशिष्ट में समाविष्ट नहीं किया है क्योंकि उनको तो पदानुक्रम के द्वारा भी जाना जा सकता है ।
ग्रंथ के अंत में पन्द्रह परिशिष्ट दिए गए हैं। यद्यपि सभी परिशिष्ट महत्त्वपूर्ण हैं लेकिन पहला, दूसरा, छठा, सातवां, ग्यारहवां, बारहवां एवं चौदहवां — ये सात परिशिष्ट विशेष महत्त्व के हैं। इन पांच निर्युक्तियों में दशवैकालिक और उत्तराध्ययन पर लघु भाष्य मिलते हैं । दशवैकालिक की प्रकाशित टीका और हमारे द्वारा संपादित भाष्य-गाथा की संख्या में काफी अंतर है । अत: प्रथम परिशिष्ट में विद्वानों की सुविधा के लिए भाष्य गाथाओं का समीकरण प्रस्तुत कर दिया है, जिससे वे सुविधापूर्वक टीका में भ्राष्य-गाथाएं खोज सकें । छठा और सातवां परिशिष्ट आकार में बृहद् होने पर भी महत्त्वपूर्ण हैं । छठे परिशिष्ट में नियुक्तिपंचक गत सभी कथाओं का हिंदी अनुवाद दे दिया है, जिससे कथा के क्षेत्र
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