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नियुक्तिपंचक पाठ-मपादन
आधुनिक विद्वानों ने पाठानुसंधान के विषय में पर्याप्त प्रकाश डाला है। पाश्चात्य विद्वान् इस कार्य को चार भागों में विभक्त करते हैं—१. सामग्री संकलन २. पाठ-चयन ३. पाठ-सुधार ४. उच्चतर आलोचना। प्रस्तुत ग्रंथ के संपादन में हमने चारों बातों का ध्यान रखने का प्रयत्न किया है। पाठसंशोधन के लिए मुख्य दो आधार हमारे सामने रहे----
१. नियुक्ति की हस्तलिखित प्रतियां । २. नियुक्तियों पर लिखा गया व्याख्या-साहित्य (चूर्णि, टीका आदि)
व्याख्याग्रंथ होने के कारण नियुक्तियों की ताड़पत्रीय प्रतियां कम मिलती हैं। पाठ-संपादन में हमने चौदहवीं-पन्द्रहवीं सदी में कागज पर लिखी प्रतियों का ही उपयोग किया है। पाठ-संशोधन में प्रतियों के पाठ को प्रमुखता दी गयी है किन्तु किसी एक प्रति को ही पाठ-चयन का आधार नहीं बनाया है और न ही बहुमत के आधार पर पाठ का निर्णय किया है। अर्थमीमांसा, टीका की व्याख्या एवं पौर्वापर्व के आधार पर जो पाठ संगत लगा, उसे मूलपाठ के अन्तर्गत रखा है। पाठ-संपादन की सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि लिपिदोष के कारण जितने आदर्श उतने ही पाठ-भेद मिलते हैं। वैसी स्थिति में सही पाठ-निर्धारण करना कठिन हो जाता है। पांडुलिपि के लिपिदोष में अनवधानता आदि तो कारण बने ही किन्तु मुख्य कारण यह रहा कि प्रतिलिपि करने वाले लगभग लिपिक थे। वे आगमों में प्रतिपाद्य विषयों को नहीं जानते थे। अनभिज्ञता के कारण उनकी लिपि में अनेक त्रुटियां समाविष्ट हो गयीं। कहीं-कहीं विद्वान लिपिकों ने अपने पांडित्य को जोड़ना चाहा, इसलिए भी पाठ-भेद की वृद्धि हो गयी।
पाठ-निर्धारण में चूर्णि और टीका का भी महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। अनेक पाठ हस्तप्रतियों में स्पष्ट नहीं थे लेकिन चूर्णि एवं टीका की व्याख्या से स्पष्ट हो गए। कहीं-कहीं सभी प्रतियों में समान पाठ होने पर भी पूर्वापर के आधार पर चूर्णि एवं टीका के पाठ को मूलपाठ में रखा है तथा प्रतियों के पाठ को पाठान्तर में दिया है।
कहीं-कहीं अन्य व्याख्या ग्रंथों में मिलने वाली गाथाओं से भी पाठ-निर्धारण किया है, जैसेउत्तराध्ययननियुक्ति की अनेक गाथाएं आवश्यकनियुक्ति में तथा दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति की गाथाएं निशीथ भाष्य में मिलती हैं।
आचारांग आदि की चूर्णि में मूलपाठ के पाठ-भेद हेतु वाचना-भेद का उल्लेख मिलता है, जैसे'नागार्जुनीयास्तु एवं पठंति आदि। नियुक्ति गाथाओं के पाठ-भेद हेतु वाचना-भेद का उल्लेख नहीं मिलता केवल 'पाठान्तरस्तु', 'पाठान्तरे तु' ऐसा उल्लेख मिलता है। संभव है कि माथुरी एवं वलभीवाचना तक नियुक्ति के पाठों में पाठान्तरों का समावेश नहीं हुआ था।
____ पांचों नियुक्तियों में अनेक समान गाथाएं पुनरुक्त हुई हैं। उनमें जहां जैसा पाठ मिला, उसको वैसा ही रखा है। प्रामाणिकता की दृष्टि से अपनी ओर से पाठ को संवादी या समान बनाने का प्रयत्न नहीं किया है। केवल नीचे टिप्पण में संवादी संदर्भस्थल दे दिए हैं।
__ प्राचीनता की दृष्टि से जहां कहीं हमें मूल व्यंजनयुक्त पाठ मिला, उसे मूलपाठ के रूप में स्वीकार किया है। लेकिन पाठ न मिलने पर यकार श्रुति के पाठ भी स्वीकृत किए हैं। इसलिए एक ही शब्द
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