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नियुक्ति पंचक के एक भाग में व्याप्त रहते हैं । पृथ्वीकाय में बादर पृथ्वी के दो भेद मिलते हैं—श्लक्ष्ण बादर पृथ्वी और खर बादर पृथ्वी । खर बादर पृथ्वी के बालुका, शर्करा आदि छत्तीस प्रकार हैं। वर्ण, गंध, रस और स्पर्श के भेद से पृथ्वीकाय आदि के अनेक भेद होते हैं । इसी के आधार पर पृथ्वीकाय की सात लाख योनियां होती हैं। पृथ्वी के एक, दो या संख्येय जीव दृष्टिगोचर नहीं होते । पृथ्वी का असंख्येय जीवात्मक पिंड ही दृष्टिगत होता है । अर्थात् पृथ्वीकाय के जीव इतने सूक्ष्म हैं कि असंख्य जीवों के पिंड ही चर्म चक्षुओं के लिए ग्राह्य हो सकते हैं । अनंतकाय वनस्पति में बादर निगोद के अनंत जीवों के शरीरों का पिंड दृग्गोचर हो सकता है किन्तु सूक्ष्म निगोद के अनंतानंत जीवों का संघात ही दृग्गोचर होता है । पृथ्वीकाय जीवों की सूक्ष्मता को जैन आचार्यों ने एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया है । कोई चक्रवर्ती की दासी पृथ्वी या नमक के टुकड़े को वज्रमय शिलापुत्र से २१ बार पीसे तो भी कुछ जीव संघट्टित होते हैं, कुछ नहीं । कुछ जीव परितापित होते हैं, कुछ नहीं। कुछ जीव स्पृष्ट होते हैं, कुछ नहीं । वैज्ञानिक परीक्षणों से सिद्ध हो चुका है कि एक चम्मच मिट्टी में जितने सूक्ष्म जीव हैं, उतनी सम्पूर्ण विश्व की आबादी है। जूलियस हेक्सले ने अपनी पुस्तक 'पृथ्वी का पुनर्निर्माण' में इस तथ्य को उद्घाटित किया है कि एक पेंसिल की नोक से जितनी मिट्टी उठ सकती है, उसमें दो अरब से अधिक विषाणु होते हैं तथा पेंसिल की नोक के अग्र भाग पर स्थित मिट्टी में जीवों की संख्या विश्व के समस्त मनुष्यों की संख्या के बराबर है। भगवती सूत्र में भगवान् महावीर ने पृथ्वीकायिक जीवों की अवगाहना अंगुल का असंख्यातवां भाग बतलाई है ।
पृथ्वीकाय जीवों के परिमाण को रूपक के माध्यम से समझाते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर यदि एक-एक पृथ्वीकायिक जीव को रखा जाए तो वे सारे जीव असंख्य लोकों में समाएंगे। दूसरा रूपक देते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि जैसे कोई व्यक्ति प्रस्थ, कुडव आदि साधनों से सारे धान्य का परिमाण करता है वैसे ही लोक को कुडव बनाकर पृथ्वीकायिक जीवों का परिमाण करे तो वे जीव असंख्येय लोकों को भर सकते हैं । साधारण वनस्पति के जीवों को प्रस्थ आदिसे माप कर अन्यत्र प्रक्षिप्त करे तो अनंत लोक भर जाएंगे। इसी प्रकार अन्य कायों के भेद एवं उनका परिमाण भी ज्ञातव्य है ।
स्थावर काय में जीवत्व - सिद्धि
आचारांग सूत्र में वनस्पति में जीवत्व - सिद्धि के अनेक हेतु दिए हैं किन्तु अन्य पृथ्वी आदि स्थावर जीवों की जीवत्व-सिद्धि में तार्किक हेतु न देकर आज्ञागम्य करने का निर्देश किया है । " नियुक्तिकार ने पृथ्वी आदि पांच स्थावरों में जीवत्व - सिद्धि के अनेक तार्किक एवं व्यावहारिक हेतु प्रस्तुत किए हैं। स्थावरकाय की जीवत्व - सिद्धि में दिए गए तर्क नियुक्तिकार की मौलिक देन है तथा ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं । सैद्धान्तिक दृष्टि से भी उन्होंने जीवत्व के अनेक हेतु प्रस्तुत किए हैं। पृथ्वीकाय आदि में उपयोग, योग, अध्यवसाय, मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान, अचक्षुदर्शन, लेश्या, संज्ञा, सूक्ष्म श्वास
१. आनि ७२-७६ । २. आनि ७७, ७८ ।
३. आनि ८२ । ४. आनि १४३ ।
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५. आनि ८७, ८८, १४४ ।
६. आनि (क) १०८, ११८, १२७-३०, १६६ । आनि ( ख ) १०९, १२० १३४, १४५, १६८ । ७. आयारो १/३८ ।
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