________________
१०१
नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण क्षेत्र दिशाओं के दश प्रकार हैं....१. ऐन्द्री २. आग्नेयी ३. याम्या ४. नैर्ऋती ५. वारुणी ६. वायव्या ७. सोमा ८. ईशाणी ९. विमला १०. तमा। इनमें ऐन्द्री (पूर्व), याम्या (दक्षिण), वारुणी (पश्चिम) और सोमा (उत्तर)—ये चार महादिशाएं तथा आग्नेयी, नैर्ऋती, वायव्या और ईशाणी—ये चार विदिशाएं कहलाती हैं। ये चार दिशाओं के चार कोणों में होती हैं। विमला को ऊर्ध्व तथा तमा को अध: दिशा कहा जाता है। रुचक प्रदेश के विजयद्वार से ऐन्द्री दिशा निकलती है अर्थात् जहां विजयद्वार है, वहां पूर्व दिशा होती है। उसके वाम पार्श्व से आग्नेयी फिर क्रमश: याम्या, नैर्ऋती, वारुणी, वायव्या, सोमा और उत्तर दिशाएं निकलती हैं। आचार्य मलयगिरि के अनुसार ये तिर्यक् दिशाएं रुचक प्रदेशों से निकलती हैं अत: इन्हें तिर्यदिशा कहा जाता है। रुचक के ऊर्ध्व में विमला तथा नीचे तमा दिशा होती है। प्रकाशयुक्त होने के कारण ऊर्ध्व दिशा को विमला तथा अंधकार युक्त होने के कारण अधोदिशा को तमा कहते हैं। मलयगिरि ने तमा के स्थान पर तामसी शब्द का प्रयोग किया है। पूर्वदिशा का स्वामी इंद्र है, इसलिए उसे ऐन्द्री कहा जाता है। इसी प्रकार अग्नि, यम, नैर्ऋत, वरुण, वायु, सोम और ईशाण आदि देव होने के कारण इन दिशाओं को क्रमश: आग्नेयी, याम्या, नैर्ऋती, वारुणी, वायव्या, सोमा और ऐशाणी कहते हैं।
भगवती सूत्र में क्षेत्र दिशा आदि भेद न करके दिशा के पूर्व, पूर्वदक्षिण आदि दश भेद किए हैं। वहां प्रश्न उपस्थित किया गया है कि इन ऐन्द्री आदि दिशाओं की आदि क्या है? इनकी उत्पत्ति कहां से होती है? ये कितने प्रदेशों से प्रारम्भ होती हैं? आगे इनके कितने प्रदेश होते हैं? ये कहां पर्यवसित होती हैं तथा इनका संस्थान क्या है? इन प्रश्नों के समाधान में महावीर कहते हैं कि ऐन्द्री आदि चार दिशाएं मेरु पर्वत के रुचक प्रदेशों से दो प्रदेशों से प्रारम्भ होकर दो-दो के कम से बढ़ती जाती हैं अर्थात् पूर्व आदि दिशाएं पहले दो प्रदेशों से प्रारम्भ होती हैं फिर चार-चार, छह-छह और आठ-आठ-इस प्रकार दो-दो के क्रम से इनके प्रदेशों में वृद्धि होती जाती है। लोक की अपेक्षा से ये असंख्येय प्रदेशात्मिका तथा अलोक की अपेक्षा से अनंत प्रदेशात्मिका होती हैं। लोक की अपेक्षा से ये सादि और सपर्यवसित हैं किन्तु अलोक की अपेक्षा सादि और अपर्यवसित हैं। लोक के अनुसार इनका संस्थान मुरव जैसा तथा अलोक की अपेक्षा शकटोर्द्धि—शकट के आगे के भाग जैसा है।
१. भ. १३/५१, ठाणं १०/३१, आनि ४३ । २. आवमटी प. ४३८, ४३९ । ३. आवमटी प. ४३९; एताश्चाष्टावपि रुचकात् प्रव्यूढत्वात् तिर्यग्दिश इति व्यवह्रियन्ते ।
४. आवमटी प. ४३८ । ५. भ.१३/५२।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org