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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवक्षण पुत्र—यह परिभोगैषणा की विशेषता का वाचक शब्द है। चूर्णिकार अगस्त्यसिंह ने पुत्र की व्याख्या में
ज्ञाताधर्मकथा की सुंसुमा कथा की ओर संकेत किया है, जिसमें पिता और पुत्रों ने परिस्थितिवश केवल जीवित रहने की आशंसा से अपनी पुत्री का मांस खाया था। संयुक्त निकाय में बुद्ध ने कथा के माध्यम से भिक्षुओं को बताया है कि किस दृष्टि से एवं किस उद्देश्य से भोजन करना
चाहिए। उदग-तृषापनयन के लिए परिस्थितिवश दुर्गन्धयुक्त पानी पी लेना। यह अस्वादवृत्ति का सूचक है।
दिगम्बर साहित्य में भी भिक्षावृत्ति के कुछ नाम मिलते हैं—१. उदराग्निशमन २. अक्षम्रक्षण ३. गोचरी ४. श्वभ्रपूरण ५. भ्रामरी। ये सभी नाम द्रुमपुष्पिका के एकार्थक की भांति साधु की भिक्षाचरी के प्रतीक हैं। जैसे भंडार में आग लग जाने पर शुचि और अशुचि कैसे भी पानी से उसे बुझा दिया जाता है, उसी तरह भिक्षु जठराग्नि को शांत करने के लिए भोजन करे। गाड़ी के चक्र में तैल लगाने की भांति शरीर की आवश्यकता-पूर्ति हेतु भोजन करे। जिस प्रकार गाय शब्द आदि विषयों में गृद्ध नहीं होती हुई आहार ग्रहण करती है,उसी प्रकार साधु भी आसक्त न होते हुए सामुदानिक रूप से आहार ग्रहण करे। श्वभ्रपूरण को गर्तपूरक भिक्षावृत्ति भी कहते हैं। जिस किसी प्रकार से पेट रूपी गड्ढा भरने हेतु साधक सरस और नीरस आहार करे तथा भ्रमर की भांति फूलों को क्लांत किए बिना थोड़ा-थोड़ा आहार अनेक घरों से ग्रहण करे।
माधुकरी भिक्षा जैन साधु की उत्कृष्ट अहिंसक जीवन-शैली का निदर्शन है। साधु अपने जीवननिर्वाह हेतु किसी भी प्रकार का आरम्भ समारम्भ न करता है, न करवाता है और न ही अनुमोदन करता है। नियुक्तिकार ने अनेक तार्किक हेतुओं से माधुकरी भिक्षा के स्वरूप को स्पष्ट किया है।
१. एक आदमी अपने इकलौते पुत्र के साथ परिवार सहित प्रवास कर रहा था। चलते-चलते वे एक दुर्गम एवं गहन जंगल
में पहुंचे। भोजन के बिना प्राणान्त की स्थिति आने लगी। पुत्र ने कहा-पिताश्री! आप मुझे मारकर शरीर को पोषण दें। आप रहेंगे तो सारा परिवार सुरक्षित रहेगा।' पिता ने विवशता में पुत्र के मांस का भक्षण किया और परिवार सहित अरण्य के बाहर निकल गया। कथा के माध्यम से बुद्ध ने प्रेरणा देते हुए कहा कि जैसे पिता ने स्वाद अथवा बल, शक्ति, लावण्य वर्धन हेतु अपने पुत्र के मांस का भक्षण नहीं किया। केवल शरीर में चलने का सामर्थ्य आ सके इसलिए मांसभक्षण किया, वैसे ही संसार रूपी जंगल को पार करने के लिए परिमित और धर्मप्राप्त भिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। स्वाद, सौन्दर्य या बलवर्धन हेतु नहीं। अधिक संभव लगता है कि परिभोगैषणा के संदर्भ में नियुक्तिकार ने बौद्ध साहित्य से यह रूपक ग्रहण किया हो। २. दशअचू प्र. ८; किसी वणिक ने परदेश में छह रत्नों को अर्जित किया। बीच में चोरों की अटवी होने से उन्हें सरक्षित ले जाना संभव नहीं था। रत्नों की सुरक्षा के लिए उसने एक उपाय सोचा। उसने फटे-पुराने कपडे पहनकर पत्थर के टुकड़ों को हाथ में ले लिया और मूल रत्नों को कहीं छिपा दिया। 'रत्न वणिक् जा रहा है' इस प्रकार बोलता हुआ वह पागलों की भांति आचरण करने लगा। चोरों ने उसे तीन बार पकड़कर छोड़ दिया। उन्होने उसे पागल समझ लिया। चौथी बार वह अपने मूल रत्नों को लेकर भागने में सफल हो गया। रास्ते में उसे तीव्र प्यास की अनुभूति हुई। 'प्राण-रक्षा के लिए उसने मृत पशु-पक्षी वाली दुर्गन्धयुक्त छोटी तलाई का पानी पीया और रत्न सहित सकुशल अपने
घर पहुंच गया। इसी प्रकार मुनि को पांच महाव्रत रूपी रत्नों की विषय रूप चोरों से रक्षा के लिए आहार करना चाहिए। ३. रयणसार गा. १००; उदरग्गिसमणक्खमक्खण-गोयरि-सब्भपूरणं भमरं। णाऊण तप्पयारे, निच्चेवं भुंजए भिक्खू।।
४. रावा. ९/६ पृ. ५९७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only
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