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नियुक्तिपंचक दशवैकालिक के प्रथम अध्ययन का नाम द्रुमपुष्पिका है। नियुक्तिकार ने द्रुमपुष्पिका, आहारएषणा, गोचर, त्वक्, उञ्छ आदि चौदह शब्दों को प्रथम अध्ययन के एकार्थक के रूप में प्रस्तुत किया है। टीकाकार ने एक अन्य मत का उल्लेख किया है, जिसके अनुसार ये प्रथम अध्ययन के अर्थाधिकार हैं। ये नाम अर्थाधिकार और एकार्थक दोनों ही प्रतीत नहीं होते। वस्तुत: इन नामों में त्रिविध एषणाओं को रूपकों के माध्यम से समझाने का प्रयत्न किया गया है। ये नाम भोजन के ग्रहण एवं उपभोग से संबंधित हैं। चूर्णिकार आचार्य जिनदास के अनुसार इन उपमाओं से मुनि की माधुकरी वृत्ति को उपमित किया गया है, इस दृष्टि से ये दशवैकालिक के प्रथम अध्ययन के नाम हैं। द्रुमपुष्पिका में मुनि की माधुकरी भिक्षा का उल्लेख है। संभव है इसीलिए अर्थ की निकटता के कारण इन शब्दों को द्रुमपुष्पिका शब्द के एकार्थक के रूप में ग्रहण कर लिया गया। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार माधुकरी वृत्ति का मूलकेन्द्र द्रुम-पुष्प है। उसके बिना वह नहीं सधती । द्रुमपुष्प की इस अनिवार्यता के कारण 'द्रुमपुष्पिका' शब्द समूची माधुकरी वृत्ति का योग्यतम प्रतिनिधित्व करता है । द्रुमपुष्पिका के एकार्थक इस प्रकार हैंआहार-एषणा–तीनों एषणाओं से युक्त। गोचर-गोचर शब्द माधुकरी वृत्ति का द्योतक है। गाय की भांति अनेक घरों से थोड़ा-थोड़ा चरना,
आहार ग्रहण करना। दोनों चूर्णिकारों ने गोचर शब्द की व्याख्या भिन्न संदर्भ में की है। उन्होंने एक कथा के माध्यम से इसे स्पष्ट करते हुए कहा कि जैसे बछड़ा घास डालने वाली कुलवधू के बनाव, श्रृंगार या रूप में आसक्त नहीं होता, उसकी दृष्टि अपने चारे पर रहती है, वैसे ही मुनि भिक्षा की दृष्टि से घरों में परिव्रजन करे पर रूप आदि को देखने में आसक्त
न हो। भिक्षा-शुद्धि के संदर्भ में तत्त्वार्थ राजवार्तिक में गोचरी का यही अर्थ सम्मत है।" त्वक त्वक् की भांति असार भोजन करने का सूचक। उंछ–अज्ञातपिंड का सूचक। मेष-अनाकुल रहकर शांति से एषणा करने का सूचक। जोंक—प्रद्विष्ट दायक को उपदेश से शांत करने का सूचक । चूर्णिकार जिनदास ने जोंक के रूपक को
अनैषणा में प्रवृत्त दायक को मृदुभाव से निवारण करने का सूचक माना है। सर्प—आहार में प्रवृत्त मुनि की संयम के प्रति एक दृष्टि तथा अनासक्त होने का सूचक। व्रण—व्रण पर लेप करने की भांति अनासक्त भाव से भोजन करने का सूचक । अक्ष—गाड़ी के अक्ष पर स्नेह-लेपन की भांति संयम-भार निर्वहण के लिए भोजन करने का सूचक । इषु—जैसे इषु-बाण लक्ष्यवेधक होता है, वैसे ही भिक्षु के लिए लक्ष्यप्राप्ति हेतु भोजन करने का सूचक । गोला-लाख के गोले का निर्माण अग्नि से न अति दूर और न अति निकट रहकर किया जाता है अत:
गोचराग्र गत मुनि के मितभूमि में स्थित रहने का सूचक।
१. दशजिचू पृ. ११, १२ एतेहिं उवम्मं कीरइ त्ति काउं ताणि
भवणंति नामाणि तस्स अज्झयणस्स। २. दसवेआलियं पृ. ४।
३. दशनि ३४, अचू पृ. ७, ८। Jain Education International
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४. दशजिचू पृ. १२, दशअचू पृ. ८। ५. रावा. ९/६ पृ. ५९७ । ६. दशअचू पृ. ८। ७. दशजिचू पृ. १२।
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