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षड्विंशतितमं पर्व
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'उपशल्यभुवोऽद्राक्षीशिगमानभितो विभुः । केदारलावैराकीर्णाः स भ्राम्यद्भिः कृषीवलः ॥ १२१ ॥ सोऽपश्यभिगमोपान्ते पथ: संश्यानकर्दमान् । प्रव्यक्तगोखु रक्षोदस्थपुटान तिसङकटान् ॥ १२२॥ निगमान् परितोऽपश्यद् ग्राममुख्यान् महाबलान्' । पयस्विनो जनैः सेव्यान् महारामतरूनपि ॥ १२३ ॥ ग्रामान् कुक्कुट सम्पात्यान् सोऽत्यगाद् वृतिभिर्वृतान् । 'कोशातकी लतापुष्पस्थगिताभिरितोऽमुतः ॥ १२४ ॥ कुटीपरिसरेण्वस्य धृतिरासीत् प्रपश्यतः । फलपुष्पानता वल्लीः प्रसवाढयाः सतीरपि ॥ १२५ ॥ योषितो निष्क्रमालाभिः वलयैश्च विभूषिताः । पश्यतोऽस्य मनो जहः ग्रामीणाः संश्रितावृती: ४ । १२६। १५ ऊगवीनकलशैः दध्नामपि निहित्रकैः । ग्रामेषु फलभेदैश्च तमद्राक्षुर्महत्तराः ॥१२७॥ ततो विदूरमुल्लङ्घय सोऽध्वानं पुतनावृतः । गङ्गामुपासदद् वीरः प्रयाणैः " कतिधैरपि ॥ १२८॥ हिमवद्विधूतां पूज्यां "सतामा सिन्धुगामिनीम् । शुचिप्रवाहामा कल्पवृत्ति कीर्तिमिवात्मनः ॥ १२६ ॥ २० शफरीप्रेक्षणामुद्यत्तरङगभ्रू विनर्तनाम् । वनराजी बृहच्छाटी परिधानां वधूमिव ॥१३०॥
चारों ओर दौड़ रहे हैं और सेनाके लोगों की जबर्दस्ती करनेपर खेद खिन्न हो रहे हैं ऐसे खेतों के मालिक किसानों को भी भरतेश्वरने बड़े कौतुकके साथ देखा था ।। १२० ।। जो खेत काटने वाले इधर-उधर घूमते हुए किसानोंसे व्याप्त हो रहीं हैं ऐसी प्रत्येक ग्रामोंके चारों ओरकी निकटवर्ती भूमियोंको भी भरतेश्वरने देखा था ॥१२१॥ जो स्पष्ट दिखनेवाले गायोंके खुरोंके चिह्नोंसे ऊंचे नीचे हो रहे हैं और जो अत्यन्त सकड़ हैं ऐसे कुछ कुछ कीचड़ से भरे हुए गांव के समीपवर्ती मार्गों को भी भरत महाराज देखते जाते थे ।। १२२ ।। उन्होंने ग्रामों के चारों ओर खड़े हुए महाबलवान् गांव के मुखिया लोगों को देखा था तथा पक्षी तिर्यञ्च और मनुष्यों के द्वारा सेवा करने योग्य बड़े बड़े बगीचों के वृक्ष भी देखे थे ॥ १२३॥ जो जहां तहां लौकी अथवा तुरई की लताओं के फूलों से ढकी हुई वाड़ियोंसे घिरे हुए हैं और जिनपर एकसे दूसरेपर मुरगा भी उड़कर जा सकता है ऐसे गावोंको वे दूरसे ही छोड़ते जाते थे ।। १२४ || झोपड़ियों के समीपम फल और फूलोंसे झुकी हुई फूलों सहित उत्तम लताओं को देखते हुए महाराज भरतको बड़ा आनन्द आ रहा था ।। १२५ ।। जो सुवर्णकी मालाओं और कड़ोंसे अलंकृत हैं तथा वाड़ियोंकी ओटमें खड़ी हुई हैं ऐसी गांवोंकी स्त्रियां भी देखनेवाले भरतका मन हरण कर रही थीं ।। १२६ ॥ गांवों के बड़े बड़े लोग घी के घड़, दही के पात्र और अनेक प्रकारके फल भेंट कर उनके दर्शन करते थे ।। १२७॥
तदनन्तर धीरवीर भरत सेनासहित कितनी ही मंजिलों द्वारा लम्बा मार्ग तय कर गङ्गा नदी के समीप जा पहुंचे || १२८ || वहां जाकर उन्होंने गङ्गा नदीको देखा, जोकि उनकी कीर्ति के समान सुशोभित हो रही थी क्योंकि जिस प्रकार उनकी कीर्ति हिमवान् पर्वतसे धारण की गई थी उसी प्रकार गङ्गा नदी भी हिमवान् पर्वतसे धारण की गई थी, जिस प्रकार उनकी कीर्ति पूज्य और उत्तम थी उसी प्रकार गङ्गा नदी भी पूज्य तथा उत्तम थी, जिस प्रकार उनकी
१ ग्रामान्तभुवः । “ग्रामान्त उपशल्यं स्यात्" इत्यभिधानात् । २ केदारैः सुनन्तीति केदारलावास्तैः । ३ मार्गान् । ४ ईषदार्द्रकर्दमान् । ५ ग्राममहत्तरान् । ६ महाफलान् द०, इ० । ७ वयस्तिरोजनैः ल० । क्षीरोपायनान् क्षीरिणश्च । महाग्राम - इत्यपि क्वचित् । e पटोरिका । 'कोशातकी ज्योत्स्निकायामपामार्गेऽपि सा भवेत्' इत्यभिधानात् । १० गृह । ११ पुत्रैराढ्या । १२ सुवर्णमालाभिः । १३ ग्रामे भवाः । १४ 'संवृतावृतीः संसृतासूती:' इत्यपि क्वचित् । १५ घृतकुम्भैः । १६ भाजनविशेषैः । १७ - सददधीरः द० । १८ कतिपयः । १६ सतीम् ल० ।
२० मीननेत्राम् ।
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