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महापुराणम् वात्सकं क्षीरसम्पोषादिव निर्मलविग्रहम् । सोऽपश्यच्चापलस्येव परां कोटि कृतोप्लुतम् ॥११॥ स पक्वकणिशानमूकलमक्षेत्रमैक्षत । नौद्धत्यं फलयोगीति नृणां वक्तुमियोचतम् ॥११२॥ वप्रान्तर्भुवमाघातुमिवोत्पलमिवानतान्। स कैदार्येषु कलमान् वीक्ष्यानन्दं परं ययौ ॥११३॥ फलानतान् स्तम्बकरीन् सोऽपश्यद् वप्रभूमिषु । स्वजन्महेतून केदारान्नमस्यत इवावरात् ॥११४॥ आपीतपयसः प्राज्यक्षीरा लोकोपकारिणीः । पयस्विनीरिवापश्यत् प्रसूताः शालिसम्पदः ॥११॥ 'अवतंसितनीलाब्जाः कञ्जरेणुश्रितस्तनीः । इक्षुदण्डभृतोऽपश्यच्छालींश्चोत्कुर्वती स्त्रियः ॥११६॥ हारिगीतस्वनाकृष्टः वेष्टिता हंसमण्डलैः। शालिगोप्यो दृशोरस्य मुदं तेनुवंटिकाः॥११७॥ कृताध्वगोपरोधानि गीतानि दधतीः सतीः । न्यस्तावतंसाः कणिशः शालिगोपीदर्श सः ॥११८॥ सुगन्धिमुखनिःश्वासा भूमरैराकुलीकृताः। मनोऽस्य जलः शालीनां पालिकाः कलबालिकाः ॥११॥ उपाध्वं प्रकृतक्षेत्रान् क्षेत्रिणः परिधावतः । बलोपरोधरायस्तानक्षतासौ० सकौतुकम् ॥१२०॥
अग्रभागसे स्थलकमल उखाड़ डाले हैं और जो अपने यशके समान उनकी मृणालोंको जहां तहां फेंक रहे हैं ऐसे उन्मत्त बैल भी भरत महाराजने देखे थे ॥११०॥ दूधसे पालन पोषण होनेके कारण ही मानो जिनका निर्मल-सफेद शरीर है, जो चंचलताकी अन्तिम सीमाके समान जान पड़ते हैं और जो बार बार उछल-कूद रहे हैं ऐसे गायोंके बछडोंके समूह भी भरतेश्वर देखते जाते थे ॥१११॥ भरत महाराज पकी हुई बालोंसे नम्रीभूत हुए धानोंके खेत भी देखते जाते थे, उस समय वे खेत ऐसे मालूम होते थे मानो 'लोगोंको उद्धतपना फल देनेवाला नहीं है' यही कहने के लिये तैयार हुए हों ॥११२॥ जो खेतके भीतर उत्पन्न हुए कमलोंको सूंघनेके लिये ही मानो नम्रीभूत हो रहे हैं ऐसे खेतोंमें लगे हए धानके पौधोंको देखकर भरत महाराज परम आनन्दको प्राप्त हो रहे थे ॥११३॥ उन्होंने खेतकी भूमियोंमें फलोंके भारसे झुके हुए धानके उन पौधोंको भी देखा था जो कि अपने जन्म देनेके कारण खेतोंको बड़े आदरके साथ नमस्कार करते हुएसे जान पड़ते थे ॥११४॥ उन्होंने जहां तहां फैली हुई धानरूप सम्पदाओं को गायोंके समान देखा था, क्योंकि जिस प्रकार गायें जल पीती हैं उसी प्रकार धान भी जल पीते हैं (जलसे भरे हुए खेतोंमें पैदा होते हैं) जिस प्रकार गायोंमें उत्तम दूध भरा रहता है उसी प्रकार धानोंमें भी पकनेके पहले दूध भरा रहता है और गायें जिस प्रकार लोगोंका उपकार करती हैं उसी प्रकार धान भी लोगोंका उपकार करते हैं ॥११५॥ जिन्होंने नाल सहित कमलोंको अपने कर्णका आभूषण बनाया है, कमलकी पराग जिनके स्तनोंपर पड़ रही है, जो हाथमें ईखका दंडा लिये हुए हैं और जो धान रखाने के लिये 'छो छो' शब्द कर रही हैं ऐसी स्त्रियों को भी उन्होंने देखा था ।।११६॥ जो अपने मनोहर गीतोंके शब्दोंसे खिंचकर आये हुए हंसों के समूहोंसे घिरी हुई हैं ऐसी धानकी रक्षा करनेवाली नवीन स्त्रियां भरत महाराजके नेत्रोंका आनन्द बढ़ा रही थीं ॥११७।। जो पथिकोंको रोकनेवाले सुन्दर गीत गा रही हैं और जिन्होंने धानकी बालोंसे कर्णभूषण बना कर धारण किये हैं ऐसी धानकी रखानेवाले स्त्रियोंको भरत ने बड़े प्रेमसे देखा था ।।११८।। जो अपने मुखकी सुगन्धित निःश्वाससे आये हुए भूमरोंसे व्याकुल हो रही हैं ऐसी धान रखानेवाली कुलीन लड़कियां महाराज भरतके मनको हरण कर रही थीं ।।११९।। जो सेनाके लोगोंसे मार्गके समीपवर्ती खेतोंकी रक्षा करने के लिये उनके
१ भुवः अन्तः अन्तर्भुवम् । २ –मेवानतान् ल०, इ०, प० । ३ सस्यक्षेत्रसमूहेषु । ४ धेनूः । ५ स वतंसित-इ० । ६ उत्कर्षान् कुर्वतीः । ७ कुलबालिकाः ल०, इ०, द०। ८ मार्गसमीपे । ६ कृत। १० क्लेशितान् ।
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