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महापुराणम् ततः प्राची दिशं जेतु कृतोद्योगो विशाम्पतिः। प्रययौ प्रामुखो भूत्वा चक्ररत्नमनुवजन् ॥८॥ चक्रमस्य ज्वलढ्योम्नि प्रयाति स्म पुरो विभोः । सुरैः परिष्कृत विश्वम्भास्वद्विम्बप्रभास्वरम् ॥८६॥ चक्रानयायि त जे निधीनामीशितुर्बलम् । गुरोरिच्छानुतिष्णु मुनीनामिव मण्डलम् ॥१०॥ दण्डरत्नं पुरोधाय सेनानीरग्रणीरभूत् । स्थपुटानि समीकुर्वन् स्थलदुर्गाण्ययत्नतः ॥१॥ अग्रण्या दण्डरत्नेन पथि राजपथीकृते । यथेष्टं प्रययो सैन्यं क्वचिदप्यस्खलद्गति ॥२॥ ततोऽध्वनि विशामीशः सोऽपश्यच्छारदी श्रियम् । दिशां प्रसाधनों कोतिम् आत्मीयामिव निर्मलाम् ॥३॥ सरांसि कमलामोदन् उद्वमन्ति शरच्छियः । मुखायितानि सम्प्रेक्ष्य सोऽभ्यनन्ददधीशिता ॥४॥ स हंसान सरसां तोरेष्वपश्यत् कृतशिञ्जनान् । मूणालपीथ सम्पुष्टान् शरदः पुत्रकानिव ॥६५॥ चञ्च्वा मृणालमुद्धृत्य हंसो हंस्यं समर्पयन् । राजहंसस्य हृद्यस्य महतीं धृतिमाददे ॥६६॥ सधीची वीचिसंरुद्धाम् अपश्यन् परितः सरः। कोकः १ कोकूयमानोऽस्य मनसः प्रीतिमातनोत् ॥१७॥ १३हंसयूनाब्जकिञ्जल्करजापिञ्जरितां निजाम् । वधूं विधूतां सोऽपश्यच्चक्रवाकीविशङकया ॥१८॥ तरङगैर्धवलीभूतविग्रहां कोककामिनीन् । व्यामोहादनुधावन्तं स५ जरद्धंसमैक्षत ॥६६॥ नदीपुलिनदेशेष हंससारसहारिष । शयनेष्विव तस्यासीद् धृतिः शुचिमसीमसु ॥१०॥
तदनन्तर जिन्होंने सबसे पहले पूर्व दिशाको जीतनेका उद्योग किया है ऐसे महाराज भरतने चक्ररत्नके पीछे-पीछे जाते हुए पूर्वकी ओर मुख कर प्रयाण किया ।।८८॥ सूर्यमण्डल के समान देदीप्यमान और चारों ओरसे देव लोगोंके द्वारा घिरा हुआ जाज्वल्यमान चक्ररत्न आकाशम भरतश्वरके आगे-आगे चल रहा था ।।८९।। जिस प्रकार मुनियोका समह गरुकी इच्छानुसार चलता है उसी प्रकार निधियोंके स्वामी महाराज भरतकी वह सेना चक्ररत्न की इच्छानुसार उसके पीछे पीछे चल रही थी।९०॥ दण्डरत्नको आगे कर सेनापति सबसे आगे चल रहा था और वह ऊंचे नीचे दुर्गम वनस्थलोंको लीलापूर्वक एकसा करता जाता था ॥९॥ आगे चलनेवाला दण्डरत्न सब मार्गको राजमार्गके समान विस्तृत और सम करता जाता था इसलिये वह सेना किसी भी जगह स्खलित न होती हुई इच्छानुसार जा रही थी॥९२।। तदनन्तर मार्ग में प्रजापति-भरतने दिशाओं को अलंकृत करनेवाली अपनी कीर्तिके समान निर्मल शरद् ऋतुकी शोभा देखी ।।९३।। शरद् ऋतुरूपी लक्ष्मीके मुखके समान जो सरोवर कमल की सुगन्धि छोड़ रहे थे उन्हें देखकर महाराज भरत बहुत ही प्रसन्न हुए ॥१४॥ सरोवरों के किनारेपर मधुर शब्द करते हुए और मणालरूपी मक्खन खाकर पुष्ट हाए हंसोंको भरतेश्वर ने शरदऋतुके पुत्रोंके समान देखा ।।९५।। जो हंस अपनी चोंचसे मृणालको उठाकर हंसीके लिये दे रहा था उसने, सब राजाओंमें श्रेष्ठ इन भरत महाराजके हृदय में बड़ा भारी संतोष उत्पन्न किया था ॥९६॥ जो चकवा लहरोंसे रुकी हई चकवीको न देखकर सरोवरके चारों ओर शब्द कर रहा था उसने भी भरतके मनकी प्रीतिको अत्यन्त विस्तृत किया था ।।१७।। एक तरुण हंसने कमल केशरकी धूलिसे पीली हुई अपनी हंसीको चकवी समझकर भूलसे छोड़ दिया था महाराज भरतने यह भी देखा ।।९८॥ लहरोंसे जिसका शरीर सफेद हो गया है ऐसी चकवीको हंसी समझकर और उसपर मोहित होकर एक बढ़ा हंस उसके पीछे-पीछे दौड रहा था--महाराज भरतने यह भी देखा ॥९९।। जिनकी सीमाएं अत्यन्त पवित्र हैं जो हंस तथा
१ पूर्वाम् । ३ परिवृतं ल०। ३ सूर्यविम्बम् । ४ तद्भजे ल०। ५ निम्नोन्नतानि । ६ शिञ्जितान् प०, द०, ल० । ७ क्षीरनवनीत । स्वपयोनवनीतमित्यर्थः । ८ राजश्रेष्ठस्य । ६ हृदये। १० प्रियाम् । ११ सरसः समन्तात् । १२ भृशं स्वरं कुर्वाणः । १३ तरुणहंसेन । १४ अवज्ञाताम् । १५ चक्री। १६ शुचित्वस्याधिषु ।
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