Book Title: Mahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 19
________________ महापुराणम् विधुबिम्बप्रतिस्पधि 'द ऽस्यातपवारणम् । तन्निभेनैन्दवं बिम्बमागत्येव सिषेविषु ॥६६॥ तदस्य रुचिमातेने धृतमातपवारणम् । चूडारत्नांशुभिभिन्नं सारुणांश्वि' पडकजम् ॥६७॥ स्वधुनीशीकरस्पधि चामराणां कदम्बकम् । 'दुधुवुर्वारनार्योऽस्य दिक्कन्या इव संश्रिताः ॥६॥ ततः स्थपतिरत्नेन निर्ममें स्यन्दनो महान् । सुवर्णमणिचित्राङगो मेरुकुञ्जश्रियं हसन ॥६॥ चक्ररत्नप्रतिस्पधिचक्रद्वितयसङगतः । बजाक्षघटितो० रेजे रथोऽस्येव मनोरथः ॥७०॥ कामगैर्वायुरहोभिः१ कुमुदोज्ज्वलकान्तिभिः । यशोवितानसंकाशेः स रथोऽयोजिर वाजिभिः ॥७॥ स तं स्यन्दनमारक्षधुक्तसारथ्यधिष्ठितम्१३ । नितम्बदेशमद्रीशः१५ सुरराडिव चक्रराट् ॥७२॥ ततः प्रास्थानिक:५ पुण्यनिर्घोषरभिनन्दितः । प्रतस्थ दिग्जयोधुक्तः कृतप्रस्थानमडगलः ॥७३॥ तदा नभोडगणं कृत्स्नं जयघोषैररुध्यत । नपांगणं च संरुद्धम् अभवत् सैन्यनायकैः ॥७४॥ महामुकुटबद्धास्तं परिवः समन्ततः। दूरात् प्रणतमूर्धानः सुरराजमिवामराः ॥७॥ प्रचचाल बलं विष्वग् प्रारुद्धपुरवीथिकम् । महायोधमयी सष्टिः अपूर्वेवाभवत्तदा ॥७६॥ मानो विजयलक्ष्मीके विवाहरूपी मंगलकी सूचना देनेवाला दीपक ही हो ॥६५॥ उन्होंने चन्द्रमण्डलके साथ स्पर्धा करनेवाले जिस छत्रको धारण किया था वह ऐसा जान पड़ता था मानो उस छत्रके बहानेसे स्वयं चन्द्रमण्डल ही आकर उनकी सेवा करना चाहता महाराज भरतने जो छत्र धारण किया था वह चूडारत्नकी किरणोंसे मिलकर ऐसा सुशोभित हो रहा था, मानो सूर्यको लाल किरणों सहित कमल ही हो ॥६७।। जो वारांगनाएं महाराज भरतके आस-पास गंगाके जल की बूदोंके साथ स्पर्धा करनेवाले चमरोंके समूह ढल रहीं थीं ऐसी जान पड़ती थों मानो अच्छी तरहसे आई हुई दिक्कन्याएं ही हों ॥६८।। तदनन्तर स्थपति रत्नने एक बड़ा भारी रथ तैयार किया जो कि सुवर्ण और मणियोंसे चित्र विचित्र दिखनेवाले मेरु पर्वतके लतागृहोंकी शोभाकी ओर हँस रहा था ॥६९।। वह रथ चक्ररत्नकी प्रतिस्पर्धा करनेवाले दो पहियोंसे सहित था तथा वज़के बने हुए अक्ष (दोनों पहियोंके बीच में पड़ा हुआ मजबूत लोहदंड-भौंरा) से युक्त था इसलिये महाराज भरतके मनोरथके समान बहुत ही ही अधिक सुशोभित हो रहा था ।।७०।। उस रथमें जो घोड़े जोते गये थे वे इच्छानुसार गमन करते थे, वायुके समान वेगशाली थे, कुमुदके समान उज्ज्वल कान्तिवाले थे और यशके समूह के समान जान पड़ते थे ॥७१॥ जिस प्रकार इन्द्र मेरु पर्वतके तटपर आरूढ़ होता है उसी प्रकार भरतश्वर, जिसपर योग्य सारथि (हांकनेवाला) बेठा है ऐस रथपर आरूढ़ तदनन्तर प्रस्थान समयमें होनेवाले 'जय' 'जय' आदि पूण्य शब्दोंके द्वारा जिनका अभिनन्दन किया जा रहा है, जो दिग्विजयकी समस्त तैयारियां कर चुके हैं और जिनके साथ प्रस्थानकालीन सभी मंगलाचार किये जा चुके हैं ऐसे महाराज भरतने प्रस्थान किया ।।७३॥ उस समय आकाशरूपी समस्त आंगन जय जय शब्दोंकी घोषणासे भर गया था, और राजाका आँगन सेनापतियोंसे भर गया था ॥७४॥ जिस प्रकार देव लोग इन्द्रको घेर कर खड़े हो जाते हैं उसी प्रकार दूरसे ही मस्तक झुकाकर नमस्कार करते हुए महामुकुट बद्ध राजा लोग भरत को घेरे हुए चारों ओर खड़े थे ॥७५।। जिसने चारों ओरसे नगरकी समस्त गलियोंको रोक लिया है ऐसी वह सेना चलने लगी। उस समय ऐसा जान पड़ता था मानो यों बड़े-बड़े १ दधे ल० । २ आतपवारणव्याजेन । ३ मिश्रम् । ४ सूर्यकिरणसहितम् । ५ वीजयन्ति स्म । ६ संसृताः ल०। ७ रच्यते स्म । ८ अवयव । ६ तट । १० वरुथाङ्ग । ११ वेगवद्भिः । १२ इज्यते स्म । १३ युक्तिपरसारथिसमाश्रितम् । १४ मेरोः। १५ प्रस्थाने नियुक्तैः । १६ भटमयी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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