Book Title: Mahapurana Part 2 Adipurana Part 2
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 20
________________ षड्विंशतितमं पर्व पुरः पावातमाश्वीयं रथकड्याच हास्तिकम् । क्रमानिरी'युरावेष्टय सपताकं रथं प्रभोः ॥७७॥ रथ्या "रथ्याश्वसंघट्टा उत्यितैमरेणुभिः। बलक्षोदाक्षमाव्योम समुत्पेतुरिव स्वयम् ॥७॥ रौक्म रजोभिराकीणं तदा रेज नभोऽजिरम् । स्पृष्ट बालातपेनेव पटवासेन वाततम् ॥७९॥ शनैः शनर्जनैर्मुक्ता विरेजुः पुरवीथयः। कल्लोलैरिव 'वेलोत्थैः महाब्धेस्तीरभूमयः ॥८॥ पुराउनाभिरुन्मुक्ताः सुमनोजलयोऽपतन् । सौधवातायनस्थाभिः दृष्टिपातैः समं प्रभौ ॥८॥ जयेश विजयिन् विश्वं विजयस्व दिशो दश । पुण्याशिषां शतैरित्थं पौराः प्रभुमयूयुजन् ॥२॥ सम्राट् पश्यन्नयोध्यायाः परां भूति तदातनीम् । शनैः प्रतोली सम्प्रापद् रत्नतोरणभासुराम् ॥८३॥ पुरो बहिः पुरः पश्चात् समं च विभुनाऽमुना । ददृशे दृष्टिपर्यन्तम् असङखचमिव तद्बलम् ॥८४॥ जगतः प्रसवागारादिव तस्मात् पुराद् बलम् । निरियाय निरुच्छ्वासं१३ शनैरारुद्धगोपुरम् ॥८॥ किमिदं प्रलयक्षोभात् मुभितं वारिर्जलम् । किमुत त्रिजगत्सर्ग:" प्रत्यग्रोऽयं विजृम्भते ॥८६॥ इत्याशक्षकच नभोभाग्भिः सुरैः साश्चर्यमीक्षितम् । प्रससार बलं विष्वक्पुराग्निर्याय चक्रिणः ॥७॥ योद्धाओंकी एक अपूर्व सृष्टि ही उत्पन्न हुई हो ॥७६॥ सबसे पहले पैदल चलनेवाले सैनिकोंका समूह था, उसके पीछे घोड़ोंका समूह था, उसके पीछे रथोंका समूह और उसके पीछे हाथियों का समूह था। इस प्रकार वह सेना पताकाओंसे सहित महाराजके रथको घेरकर अनक्रम से निकली ॥७७॥ जिन मार्गौसे वह सेना जा रही थी वे मार्ग रथ और घोड़ोंके संघटनसे उठी हुई सुवर्णमय धूलिसे ऐसे जान पड़ते थे मानो सेनाका आघात सहने में असमर्थ होकर स्वयं आकाशमें ही उड़ गये हों ।।७८।। उस समय सुवर्णमय धूलिसे भरा हुआ आकाशरूपी आंगन ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो बालसूर्यकी सुनहली प्रभासे स्पर्श किया गया हो, और सुगन्धित वर्णसे ही व्याप्त हो गया हो ॥७९।। धीरे धीरे लोग नगरकी गलियोंको छोड़कर आगे निकल गये जिससे खाली हुई ये गलियां ऐसी जान पड़ती थीं मानो ज्वारभाटासे उठी हुई लहरोंके चले जानेपर खाली हुई समुद्रके किनारे की भूमि ही हों॥८०॥ उस समय बड़े बड़े मकानोंके झरोखोंमें खड़ी हुई नगर-निवासिनो स्त्रियोंके द्वारा अपने अपने कटाक्षोंके साथ छोड़ी हुई जलियां महाराज भरतके ऊपर पड़ रही थीं ॥८१।। हे ईश, आपकी जय हो, हे विजय करनेवाले महाराज, आप संसारका विजय करें और दशों दिशाओंको जीतें; इस प्रकार सैकड़ों पुण्याशीर्वादोंके द्वारा नगरनिवासी लोग भरतकी पूजा कर रहे थे-उनके प्रति सन्मान प्रकट कर रहे थे ।।८२॥ इस प्रकार उस समय होनेवाली अयोध्याकी उत्कृष्ट विभूतिको देखने हुए सम्राट भरत धीरे धीरे रत्नोंके तोरणोंसे देदीप्यमान गोपुरद्वारको प्राप्त हुए ॥८३॥ उस समय महाराज भरतको नगरके बाहर अपने आगे पीछे और साथ साथ जहांतक दृष्टि पड़ती थी वहां तक असंख्यात सेना ही सेना दिखाई पड़ती थी ॥८४।। जगत्की उत्पत्तिके घरके समान उस अयोध्यापुरीसे वह सेना गोपुरद्वारको रोकती हुई बड़ी कठिनतासे धीरे धीरे बाहर ॥८५॥ क्या यह प्रलय कालके क्षोभसे क्षोभको प्राप्त हआ समद्रका जल है ? अथवा यह तीनों लोकोंकी नवीन सृष्टि उत्पन्न हो रही है ? इस प्रकार आशंका कर आकाशमें खड़े हुए देव लोग जिसे बड़े आश्चर्य के साथ देख रहे हैं ऐसी चक्रवर्तीकी वह सेना नगरसे निकल कर चारों ओर फैल गई॥८६-८७।। १ पदातीमा समूहः । २-कटचा ल० । ३ निर्गच्छन्ति स्म । ४ रथनियुक्तवाजी। रथाश्वः ६०,ल०, इ० । ५ उत्पतन्ति स्म । ६ स्पष्टं ल०। ७ चाततम् । ८ जलविकारोत्थैः 'अब्ध्यम्बुविकृता वेला' इत्यभिधानात् । -मपूजयन् ल० । १० सम्पदम् । ११ तत्कालजाम् । १२ गोपुरम् । १३ उच्छवासानिष्क्रान्तं यथा भवति तथा । ससङकटमिति यावत् । १४ विलोकसष्टिः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 ... 568