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सन्धि २०
"ऋषभके द्वारा भरतसे ( पहले ) जो कुछ कहा गया, उसे मैं इस समय छिपाकर नहीं रखूँगा । सुनो, मैं त्रिषष्टि पुराण कहता हूँ ।"
आर्थिक
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तब वहीं ऋषभदेवने इस प्रकार कहा, "हे मनुष्य देवपुत्र सुनो, पुराणमें-- त्रिलोक देशपुर-राज्य तीर्थं तप-दान- शुभ-प्रशस्त गति फल आठों प्रारम्भिक पुण्यस्थान आदि बातें कही जाती हैं। जिसमें द्रव्य स्थित रहते हैं और दिखाई देते हैं, उसे लोक कहा जाता है। उसे न तो किसी ने बनाया है, और न वह किसके द्वारा धारण किया गया है। वह निरन्तर जीव- अजीवों से भरा हुआ है, चल और अचल वह अपने स्वभावसे रचित है। तथा आकाश में स्थित होते हुए भी वह गिरता नहीं है । लेकिन मूर्ख जड़जनों को इसका कारण बताते हैं कि सृष्टि करनेवाले देवने इस लोकका निर्माण किया है। पृथ्वी, पवन, अग्नि, जल और लोकके उपादान द्रव्य यदि नहीं हैं, तो वह स्रष्टा उन्हें कहीं पाता है ? निराकार से क्या कोई वस्तु हो सकती है ? क्या आकाश में कमलोंकी रचना हो सकती है। दीपक दीपक बाती जलती है ? परन्तु जिसमें धर्म, अर्थ और काम नहीं है, उसमें इच्छाका प्रसार कैसे हो सकता है । निष्कियमें क्रिया विशेष कैसे हो सकती है, जो निष्पाप है, उसमें हमें और को नहीं हो सकता । तृष्णारूपी तन्त्र के बिना फल नहीं हो सकते। उसके बिना (करना-हरमा ) आदि बुद्धियाँ नहीं हो सकतीं। क्या बिना छत्र छाया आ सकती है ? शिवको कर्ताकी व्याधि किस प्रकार लग गयो ।
क
धत्ता - घड़ेसे भिन्न कुम्भकार घड़े को बनाता है, यह बात मुझे जंचती है। शिव अपने से विश्वकी रचना करता है, फिर गुणवानों को शाप क्यों देता है ? ॥१॥
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