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महापुराण
पुरुषगुणालंकार (त्रिषष्टि महापुरुषगुणालंकार) है। कविकी तीसरी रचना 'जसहरचरिउ' है जिसकी चार सन्धियोंमें कुल 138 कड़वक है। दूसरी रचना है ‘णायकुमारचरि' । स्वर्गीय डॉक्टर हीरालाल जैनने लिखा है (णायकुमारचरिउकी भूमिका पृ. 17) कि सिद्धार्थ और क्रोधन 60 वर्षीय संवत् चक्रके विशेष वर्षों के नाम हैं। इनमें क्रोधन संवत्सर सिद्धार्थ संवत्सरके पीछे आता है। णायकुमारचरिउमें कृष्णराज और नन्नका उल्लेख है। णायकुमारकी रचनाके समय कवि नन्नके घर में रह रहा था। .
"मुद्धई केसव भट्टपुत्तु कासवरिसिगोत्ते विसालचित्तु णण्णहो मंदिरि णिवसंतु संतु
अहिमाण मेरु गुणगण महंतु"-१/२ अपने शिष्य नाइल्ल और शीलभट्टके अनुरोधपर कवि कहता है
"पडिवज्जमि णण्णु जि गुण महंतु" स्वीकार करता हूँ कि नन्न गुणोंसे महान् है । ११५
'णायकुमारचरिउ' की अन्तिम प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि नन्न भरत मन्त्रीका पुत्र था। जसहरचरिउ इसके बादकी रचना है।
आश्रयदाता भरत
इसमें सन्देह नहीं कि काव्य मनुष्यकी उदात्त और स्वतन्त्र अभिव्यक्ति तथा सृजन शक्तिका सर्वोत्तम माध्यम है । इसके साथ, इसमें भी सन्देह नहीं कि भारतीय कविको अपने सृजनके लिए किसी न किसी आश्रयकी खोज करनी पड़ी है। इसलिए भारतमें जो भी काव्य (आर्ष काव्यको छोड़कर ) लिखा गया वह राजनीति या धर्मके आश्रय और प्रेरणासे हो लिखा गया। स्वतन्त्र भारतमें भी यही स्थिति है। देशमें मिश्रित अर्थ व्यवस्था की तरह 'सृजन' भी दो क्षेत्रोंमें विभक्त है। एक सरकारी क्षेत्रमें और दूसरा व्यक्तिगत क्षेत्रमें । आर्थिक दृष्टिसे स्वतन्त्र लेखन द्वारा स्तरीय जीवन जीनेकी परिस्थितियां इस समय देशमें नहीं हैं, वे निकट भविष्यमें होंगी इसकी कोई सम्भावना कम से कम मुझे तो नहीं दिखाई देती। स्वतन्त्रता पानेके बाद भारतीय लेखकने अभिव्यक्तिकी स्वतन्त्रताका हनन स्वयं किया और अब अपनी चरित्र हत्याका दोष वह दूसरोंपर मढ़ना चाहता है। ऐसा वह कभी प्रतिबद्धताके नामपर करता है, और कभी 'मुखौटा' का नारा लगाकर और कभी प्रयोगवादके नामपर । काव्यमूल्यों और जीवनमूल्योंमें गहरी खाई-प्रयोगवादी और नयी कविताकी सबसे बड़ी दुर्बलता है जिसे वह प्रतीकों और बिम्बोंमें छिपाकर कलात्मक चमत्कार उत्पन्न करना चाहता है। उसका सबसे बड़ा चरित्र है कलामें आम आदमीकी बात करना और जीवनमें 'खास आदमीका जीवन जीना।' लेकिन इसके लिए अकेला सर्जक ही दोषी नहीं है, जिस देशके पूरे कुएं में भांग पड़ी हो, उसमें किसी एक वर्गको यह दोष देना कि कम से कम उसे नशेमें नहीं होना था, न्यायसंगत नहीं है। फिर भी कुछ व्यक्तित्व मिल जायेंगे कि जिन्होंने जीवनमूल्य और काव्यमूल्यको एक साथ जिया । कायदेसे मुझे इस प्रसंगको नहीं कुरेदना था, परन्तु यह सृजन और आश्रयके प्रश्नसे शाश्वत रूपसे जुड़ा हुआ है, अतः यह देख लेना जरूरी था कि उसका हल खोजा जा सका है या नहीं । जहाँ तक पुष्पदन्तका सम्बन्ध है, उनकी जीवनको आवश्यकताएं थोड़ी थीं। आश्रयदाता भरत और उसके बाद, उसीके पुत्र नन्नने अपनी प्रशस्ति लिखवानेके लिए नहीं, अपितु 'नाभेयचरित' की रचनाके लिए कविसे आतिथ्यकी अभ्यर्थना की थी। बीच-बीच में उसका मन उचटा भी, परन्तु भरतने चतुराईसे काम लिया। पुष्पदन्तने गौरवके साथ भरतके नामका उल्लेख अपने काव्यमें किया है। प्रत्येक सन्धिके अन्तमें उसे महाभव्य विशेषण दिया है, भरत कौडिन्य
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