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प्रस्तावना
४१ पुराणोंको भी नहीं जानता, भावोंके राजा भारवि, भास, व्यास, कोमलगिरि कालिदास, चतुर्मुख, स्वयंभू, श्रीहर्ष, द्रोण, कवि ईसान और बाणको भी मैंने नहीं देखा । धातु, लिंग, समास, गण, कर्म, करण, क्रिया, सन्धि, कारक, पद समाप्ति और विभक्तियोंको मैं नहीं जानता। शब्दधाम, आगमको भी मैं नहीं जानता कि जिनके नाम सिद्धान्तधवल और जयधवल हैं। जड़ताका नाम करनेवाले चतुर रुद्रट और उनके अलंकारसारको मैंने नहीं देखा । मैंने पिंगल प्रस्तार नहीं पढ़ा। यश जिनका चिह्न है, और जो लहरोंसे निरन्तर अभिषिक्त है, ऐसा सिन्धु (सेतुबन्ध काव्य ) मेरे चित्तपर नहीं चढ़ा। न मैंने कलाकौशलमें मन लगाया। मैं विचारोंकी दुनियामें जन्मजात मूर्ख हूँ । निरक्षर और चर्म रुक्ष । यह सब होते हुए भी मैं मनुष्यके रूपमें घूमता हूँ। महापुराण अत्यन्त दुर्गम होता है। घड़ेसे समुद्रको कौन माप सकता है। अमरों, सुरों और गुरुजनोंके लिए सुन्दर जिस महापुराणको रचना बड़े-बड़े मुनियोंने की है, मैं भी उसका कुछ वर्णन करता हूँ।"
आत्मपरिचय
पुष्पदन्तका जीवन संघर्षोंसे भरा हुआ था। यह सोचना गलत है कि जो लोग भौतिक आवश्यकताओंसे मुंह मोड़कर निःस्पृह हो जाते हैं उनके जीवनमें संघर्ष नहीं होता। पुष्पदन्त निःस्पृह थे, परन्तु अत्यन्त भावुक और स्वाभिमानी होनेसे उन्हें मानसिक तनाव बहुत झेलना पड़ा। महापुराणको अन्तिम प्रशस्तिमें अपना परिचय उन्होंने इस प्रकार दिया है
"अमीरों और गरीबोंके प्रति समदृष्टि रखनेवाला मैं मुक्तिरूपी वधूका दूत हैं। मां मुग्धादेवी और पिता केशवभट्ट । गोत्र कश्यप । सरस्वतीके साथ विलास करनेवाला । पापपटलसे दूर रहनेवाला । सूने घरों
और मन्दिरों में निवास करनेवाला । पुराने वल्कल और चीवरोंको धारण करनेवाला । न घर-बार और न स्त्री । नदियों, बावड़ियों और तालाबोंमें नहा लेना, और दुर्जनोंसे दूर रहना । धूल-धूसरित शरीर, धरतीका बिछौना और हाथोंका आच्छादन । सदैव संन्यास मरणकी इच्छा रखनेवाला । अर्हतके ध्यानका योगी, और भरतके आश्रयमें रहनेवाला । अपने सृजनसे लोगोंको पुलकित करनेवाला । कविकुलतिलक अभिमान मेरु ।"
वह कितने अपरिग्रही और स्वाभिमानी थे, यह उन छन्दोंसे स्पष्ट है जो उनकी पाण्डुलिपियोंमें यत्रतत्र बिखरे हुए हैं । एक उदाहरण देखिए
"जगं रम्म हम्मं दीवओ चन्दविम्बं धरित्ती पल्लंको दो वि हत्था सुवत्थं पियाणिद्दा णिच्चं कव्वकीला विणोओ
अदीणतं चित्तं ईसरो पुप्फदन्तो" छन्द कहता है कि पुष्पदन्त ईश्वर है, सुन्दर संसार उसका घर है, चन्द्रबिम्ब दीपक है, धरती पलंग है, और दो हाथ वस्त्र हैं, नित्य आनेवाली नींद प्रिया है, काव्यक्रीड़ा विनोद है, चित्त अदीन है।
एक राजा क्रूर हिंसाके द्वारा ऐश्वर्यके साधन जुटाता है फिर भी सुख-शान्तिसे नहीं रह पाता। कवि पुष्पदन्त आत्माकी स्वाधीनता और मनकी कल्पनामें उसे यदि पा लेता है तो उसके ईश्वरत्वको चुनौती कौन दे सकता है ?
जिन सज्जनोंने मान्यखेट नगरके उद्यानमें ठहरे हुए कविकी भेंट भरतसे करायी थी, उनके नाम थे इन्द्रराज और अन्नइया । कविको मन्त्री भरतके शुभतुंग भवनमें ठहराया गया । भरतके अनुरोधपर कविको महापुराणकी रचनामें सिद्धार्थ संवत्सरसे लेकर क्रोधन संवत्सर तक (959 ई. से 965) कुल छह वर्ष लगे। संस्कृत महापुराण (जिनसेनका आदिपुराण और गुणभद्रका उत्तरपुराण) इस दृष्टिसे ईसवी 898 से पूर्वका सिद्ध होता है। महापुराण 102 सन्धियों 1907 कड़वकोंमें पूरा हुआ है। इसका दूसरा नाम तिसट्टि महा
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