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सन्धि १७
के आगमन और सूर्यका उदय होनेपर, जिसकी चंचल तलवाररूपी जीभ लपलपा रही है नन्दानन्दन ( बाहुबलि ) से भरत रणमें उसी प्रकार भिड़ गया, जिस प्रकार सिंहसे सिंह भिड़ जाता है ।
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ne युद्धके लिए कृतमन, अद्वितीय विरुद्ध, विस्फारित दाँतोंसे नीचेका ओठ चबाता हुआ, अपने कठोरतर हाथसे कृपाणको पीटता हुआ, उद्धत मिली हुईं आहत भौंहोंके कोणवाला, त्रिबलितरंगसे भंगुरित भालवाला वह ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो कुटिल दाढ़ोंसे कराल (भयंकर) तथा अपनी लाल-लाल आँखोंकी आभासे दिगन्तको रंजित करनेवाला सिंह हो । मानो धकधक करती हुई प्रलयकी ज्वाला हो। दूतके शब्दोंसे जिसका क्रोध बढ़ गया है ऐसा वह राजाधिराज क्रोध से कहता है- “पिताके सुन्दर वचनोंकी याद कर, यदि मैं किसी प्रकार कुमारको रणमें मारता नहीं हूँ, तो उसे पकड़कर और अवरुद्ध कर उसी प्रकार कर दूँगा जिस प्रकार बेड़ियोंसे जकड़ा हुआ हाथ रहता है । मेरे क्रुद्ध होनेपर देव और अदेव मेरी सेवा करते हैं, फिर वह मेरी सेवा क्यों नहीं करता ?" इस प्रकार गरजकर, अपनी तलवारसे देवेन्द्रको त्रस्त करनेवाला महान् नरेन्द्र भरत उठा । तब मुकुटबद्ध तथा केयूर और कण्ठाभरणोंसे आन्दोलित माण्डलीक राजा चले। जिनके स्वर्णके करधनी समूह धरतीपर गिर रहे हैं ऐसे अत्यन्त भीषण वे इस प्रकार स्थित हो गये जैसे कालस्वरूप ही हों । एकसे एक प्रमुख गिरीन्द्र की तरह धीर वे वीर शीघ्र राजाके साथ तैयार हो गये ।
धत्ता - तैयार होते हुए उस योद्धाजनसे कोई स्त्री कहती है, “यदि तुम मेरा कोई उपकार मानते हो तो हे प्रियतम, सुर रमणीको मत पसन्द करना" ॥१॥
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वधू कहती है- "हाथमें आये हुए सैकड़ों मणिकंकणोंसे क्या, हाथीदांतका बना एक कड़ा यदि हाथमें सोहता है, उस धवल कड़ेको हे प्रिय तुम अपने पौरुष और यश तथा मेरे प्रेमके
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