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• १८. १२.१०]
हिन्दी अनुवाद हुए, सोलह प्रकारके वचनोंमें रमण करते हुए और भी सत्तरह असंयम मोहनीय, अट्ठारह सम्पराय मोहनीय, उन्नीस प्रकारके नाह-ध्यान (नाथध्यान ), बीस असमाधिस्थानों, इक्कीस मन्द अपवित्र कार्यों और बाईस असाध्य परिसहोंको सहकर। तेईस सूत्रकृतांग-सूत्र और चौबीस जिनतीर्थों में होते हुए, पच्चीस भावनाओंको धारण करते हुए, छब्बीस क्षेत्रोंको देखते हुए, सत्ताईस मुनिगुणोंको स्मरण करते हुए अट्ठाईस मूलगुणोंको अपने मनमें समर्पित कर प्रवर आचारकल्पके प्रति अर्पित कर, उनतीस दुष्कृत सूत्रों, तोस बलवान् मोहस्थानों और इकतीस मलपापोंको नष्ट करते हुए और बत्तीस जिनगुणोंका मनन करते हुए- .
__ घत्ता-स्थिर शुक्लध्यानकी अवतारणा कर चार घातिया कर्मोको नष्ट कर दिया। मुनिवरको केवलज्ञान उत्पन्न हो गया और उन्होंने लोकालोकको देख लिया ॥११॥
१२ तब देवेन्द्र के साथ देव चले। तारागण चन्द्रमाके साथ चले। राजा लोग नरेन्द्रके साथ दौड़े। सांप धरणेन्द्रके साथ आये। उन्होंने कषाय और विषादको नष्ट करनेवाले आदरणीय बाहुबलिकी स्तुति की-"आपने राजचक्रको तिनकेके समान समझा, कर्मचक्रको ध्यानाग्निमें आहुत कर दिया और देवचक्र आपके सामने दौड़ता है, चक्रवर्तीका चक्र सुन्दर नहीं लगता। हे मुनि, आपको देखनेसे राग नहीं बढ़ता, आपको छोड़कर कोन निश्चित रूपसे नष्ट होती हुई और विधुर समुद्रके विवरमें पड़ती हुई जीवराशिको नरकसे निकाल सकता है ? पृथ्वीश्वरने कामकी आसक्तिसे दीक्षा लेकर कामदेवको जीत लिया। तुम्हारे समान किसे कहा जा सकता है, आप मुण्ड केवलियोंमें प्रमुख हैं।" इस प्रकार बुद्धिसे समर्थ इन्द्रने स्तुति करते हुए आधे पलमें विक्रियासे
घत्ता-पद्मासन चपल चमरयुगल एक ही सुन्दर छत्र जो ऐसा दिखाई देता है मानो तपरूपी नदीमें इन्दीवर हो ॥१२॥
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