Book Title: Mahapurana Part 1
Author(s): Pushpadant, P L Vaidya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 545
________________ I [ कवि ऋषभनाथकी वन्दना करता है, कि जो तीर्थंकरोंमें प्रथम हैं, तथा सरस्वती भी, जो विद्याकी देवी हैं । वह महापुराणकी रचना करनेका इरादा प्रकट करता है । परिचयके बहाने कवि बताता है कि सिद्धार्थ संवत् ( 881 शक संवत्; अर्थात् 959 ईसवी सदी) में एक समय, वह मेपाडी ( मान्यखेट आधुनिक मलखेड ) के बाह्य उद्यानमें पहुँचा और लम्बा रास्ता पार करनेके कारण थका हुआ वह, वहाँ एक गुफामें ठहर गया । नगरके दो आदमी अन्नया एवं इन्दरैया उसके पास पहुँचे और उन्होंने उससे मन्त्री भरतसे भेंट करनेकी प्रार्थना की जो उसका अच्छा स्वागत करेगा । पहले-पहल तो कविने ऐसा करने में अपनी अनिच्छा प्रकट की क्योंकि उसका इस विषयमें राजा भैरव ( वीर राजा ) के दरबारका कड़वा अनुभव था । परन्तु उक्त आदमियोंने कविको विश्वास दिलाया कि भरत एकदम भिन्न आदमी है और वह उसकी अच्छी आवभगत करेगा । फलस्वरूप कविने भरतसे भेंट की । उसका अच्छा स्वागत किया गया और वह कुछ समय के लिए वहाँ रहा । तब भरतने कविसे महापुराणके लिखनेकी प्रार्थना की। क्योंकि इससे वह अपनी कवित्व शक्तिका सही उपयोग कर सकता है, उसने उन्हें सब प्रकार की सहायता देनेका प्रतिवेदन किया। पहले तो कविने अपनी अनिच्छा व्यक्त की क्योंकि वह उन दुष्ट लोगोंसे भयभीत था जो अच्छी रचनाकी भी आलोचना करते हैं । भरतने उनपर ध्यान न देनेकी कविसे प्रार्थना को । तब कविने विनयपूर्वक कहा कि वह महापुराणकी रचना करनेके लिए योग्य है, यद्यपि वह महान् दार्शनिक सम्प्रदायों और अतीत के महान् कवियोंकी रचनाओं, व्याकरण अलंकार और छन्द-सम्बन्धी रचनाओंसे अनभिज्ञ नहीं है, फिर भी महापुराण में वर्णित महान् व्यक्तित्वोंके प्रति भक्तिके कारण वह महापुराणकी रचना करेगा। इसके बाद कवि गोमुख यक्ष, ऋषभनाथ और पद्मावती यक्षिणी ( विद्याकी देवी ) से सहायताकी याचना करता है । अँगरेजी टिप्पणियोंका हिन्दी अनुवाद कवि महापुराणकी रचना प्रारम्भ करता है : जम्बूद्वीपमें मगध देश है, जिसकी राजधानी राजगृह है । एक दिन जब राजा श्रेणिक मन्त्रियोंके साथ दरबार में सिंहासनपर बैठा था, तो उद्यानपालने आकर सूचना दी कि भगवान् महावीर नगरके बाहर उद्यानमें ठहरे हुए हैं । राजा तुरन्त सिंहासनसे उठा, उसने वन्दना की तथा उनको गौरवान्वित करनेवाली प्रार्थना की। ] पृष्ठ 418 I. कवि ऋषभनाथकी वन्दना करता है कि जो प्रथम तीर्थंकर हैं । 1. 30. अच्छी तरह परीक्षा कर, अच्छी तरह जानकर T संसारके जड़-वेतन विभागको अच्छी तरह जानते हुए | 36 दिव्यतनु निस्वेदत्व ( पसीनेसे रहित) आदि अतिशयोंसे मुक्त शरीरवाले | T जिनेन्द्र भगवान् - का शरीर दिव्य होता है । उनके शरीर में दस अतिशय होते हैं जैसे पसीना नहीं आना इत्यादि । इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान्‌के चतोस अतिशय होते हैं । देखिए अभिधान चिन्तामणि I 57-64। इनमें से जिनेन्द्र के शरीर में दस विशेष होते हैं। देखिए IV. 2. 4a जिन्होंने शाश्वत पदरूपी नगर (मोक्ष) का पथ ( रत्नत्रय ) प्रकट किया है, ऐसे जिनेन्द्र भगवान् । T., वह जिन्होंने मोक्षको ले जानेवाले पथका उपदेश दिया है जिसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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