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महापुराण
अपनी आत्माको मोहको कीचड़में क्यों सानते हो ? तुम्हें वाणीरूपी कामधेनु सिद्ध है उससे नवरसरूपी दूष क्यों नहीं दुहते ?"
कविका उत्तर है - "यह कलियुग पापोंसे मलिन और विपरीत है; निर्दय, निर्गुण और अन्यायकारी, इसमें जो-जो दिखाई देता है, वह अन्यायजनक है। सूखे हुए वनकी तरह, फलहीन और नीरस । दुनियाके लोगों का राग ( स्नेह ) सन्ध्याकालके रागके समान है, मेरा मन घनमें प्रवृत्त नहीं होता भीतर अतिशय उद्वेग बढ़ रहा है, एक-एक पदकी रचना करना भारी जान पड़ता है । फिर में जो कुछ कहूँगा उसमें दोष ढूँढ़ा जायेगा; मैं यह नहीं समझ पाता कि यह दुनिया सज्जनोंके प्रति खिची-खिची क्यों रहती है ? उसी तरह कि जिस तरह धनुष पर चढ़ी हुई डोरी ।" कवि के इस उत्तरसे उसकी उदासीका कारण छिपा नहीं रहता । पैसा कमाना जिसके सृजनका उद्देश्य न हो, और जो स्वार्थजन्य क्षुद्र कुटिलताओंसे घृणा करता हो, उसके लिए सृजनका एकमात्र उद्देश्य आत्माको शान्ति और मनकी पवित्रता ही हो सकती थी । वह कहता है
मज्झु कइतणु जिणपयभत्तिहि
पसरइ णउणिय जीविय-वित्तिहि ॥
कवि मन्त्री भरतसे कहता है कि मैं अकारण स्नेहका भूखा हूँ, है । क्या इसका अर्थ यह निकाला जाये कि कविकी उदासीका कारण तक पहुँचते-पहुँचते उसे भरतसे वह अकारण स्नेह नहीं मिल रहा था दायित्व अपने ऊपर लिया था ।
दुर्जन- निन्दा
में
कविको दुर्जनोंसे जितनी चिढ़ थी उतनी शायद ही किसी दूसरे कविको रही हो ! इक्यासवीं सन्धि वह फिर दुर्जनोंको आड़े हाथों लेता है, परन्तु अबकी बार उसकी मुद्रा भिन्न है । इसका कारण सम्भवतः यह है कि अबतक अपने कविकर्ममें उसे काफी यश मिल चुका था । वह लिखता है
"मैं काव्यका रचयिता और पण्डित हूँ, अनेक सुजनोंका प्यारा । परन्तु दुष्टका स्वभाव ही दूसरोंके दोषों को ग्रहण करना है । इसलिए मैं उसका प्रतिकार नहीं करता । मेरा काम काव्य करना है, दुर्जनका काम निन्दा करना । वह अपना काम करे, मैं अपना काम करूं । दोनोंका नतीजा पण्डित ही जानेंगे । मेरी विमलकीर्ति अपने कोमल और सरस पद दुष्टोंके गलों और कपोलोंपर रखती हुई तीनों लोकोंमें विचरण करेगी । " 81 / 12 ।
आत्मविनय
गर्वोक्तियोंके बावजूद कविमें गहरी आत्मविनय थी । वह लिखता है - " मैं निर्दय और पापकर्मा हूँ, आज भी मैं कुछ भी धर्म नहीं जानता । मेरा विवेक मिथ्यात्व के सौन्दर्यसे रंजित है, मैं जिनवर के वचनोंसे अपरिचित हूँ । अभी तक में ऐसे कथान्तरोंकी रचना करता रहा हूँ जो शृंगार-चेतनासे निरन्तर भरपूर थे, पर लो मैं अब महापुराणकी रवना करता हूँ । लो मैं अपने हाथोंसे सूर्यको ढक रहा हूँ । लो मैं समुद्रको कलशसे उलीच रहा हूँ ।"
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इसी कारण वह उसके घरमें रहा शायद यह था कि सैंतीसवीं सन्धि जिसके लिए उसने यह महान् उत्तर
प्राचीन परम्पराका उल्लेख करते हुए वह कहता है- "मन्त्री भरतने मुझसे इस काव्य की रचना करवायी । यद्यपि मैं पण्डित नहीं हूँ, व्याकरण, छन्द और देशी नहीं जानता, जो कथा विश्ववन्द्य आचार्यों द्वारा सम्मानित है उसे मैं किस प्रकार प्रारम्भ करूँ ? मैं अकलंक कणचर, कपिल, वेदपाठी, सुगत और चार्वाक के अभिप्रायों नहीं जानता । मैंने पातंजलके महाभाष्यके जलको नहीं पिया । मैं अत्यन्त पवित्र इतिहास और
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