________________
११. १२.८] हिन्दी अनुवाद
२४७ सर्वार्थ सिद्धि तक होती है। नारकीय मरकर नरकमें नहीं जाता। और देव मरकर देव नहीं बनता, यह विवेचन मुनिनाथ करते हैं। जीव नरकसे सीधे स्वर्ग नहीं जाता और स्वर्गसे नरक नहीं जाता। क्योंकि वे अपनी विधिसे मार्ग ( पुण्य और पापका मार्ग) नष्ट करनेवाले होते हैं। तिथंच चारों गतियोंमें जानेवाला होता है. जिस प्रकार तिर्यंच. उसी प्रकार दःखसे पीडित मनष्य चारों गतियोंमें जा सकता है। सीमित आयुवाले तिर्यंचोंका तिर्यंचत्व और मनुष्योंका मनुष्यत्व अविरुद्ध है, अर्थात् एक दूसरेकी योनिमें जा सकते हैं।
घत्ता-सुखसे च्युत मनुष्य और तियंच, अपने द्वारा उपार्जित पुण्यसे तीन गतियों (नरक, तिर्यंच और मनुष्य में उत्पन्न नहीं होते, एक पल्यके बराबर जीकर स्वर्ग प्राप्त करते हैं ॥१०॥
जो संख्यात आयुका जीवन धारण करनेवाले हैं और एक दूसरेको विदारित करते और मारते हैं ऐसे सरीसपं पहले और दूसरे नरकमें जाते हैं। पक्षी दुःखकी खान तीसरे बालुकाप्रभ नरकमें जाते हैं। महोरग चौथे नरकमें जाते हैं। पशुओंको मारनेवाले सिंह पांचवें नरकमें जाते हैं । महिलाएं दुःखसे व्याप्त छठे नरक तक जाती हैं। म्लेच्छ और मनुष्य सातवें नरक तक जाते हैं। कोई छठे नरकसे आकर मनुष्यत्व प्राप्त करता है। कोई पांचवें नरकसे आकर देशव्रत धारण करता है। कोई चौथे नरकसे आकर निवेदको धारण करता है। कोई मोक्ष गति प्राप्त करता है। तीसरे-दूसरे और पहले नरकसे आया हुआ कोई जीव, महान् तीर्थकर होता है। मनुष्य और स्त्रियां निर्मल यश और कीर्ति तथा शलाकापुरुषत्वको प्राप्त नहीं कर सकते। मनुष्य सब कहीं उत्पन्न हो सकता है। सूत्र रूपमें यह बात कही जाती है। जितने राम (बलभद्र) हैं वे ऊर्ध्व गतिवाले और सुखके स्वामी हैं, जितने केशव (नारायण ) हैं, वे नरकगामी हैं।
___घत्ता-जो यमकी तरह प्रतिशत्रु हैं, (प्रति नारायण ) और स्थूलकर नारायण नहीं हैं, वे नरकसे निकलकर हलधर और चक्रधर नहीं होते ॥११॥
१२
तीन कायिक ( अर्थात् पृथ्वी, जल और वनस्पति कायिक ) जीवोंके लिए मनुष्यत्व विरुद्ध नहीं है, और तिर्यंचत्व भी नहीं, ऐसा जिनबुद्धने ज्ञात किया है। पृथ्वी, जल और प्रत्येक वनस्पतिमें देव च्युत होकर जन्म ले सकते हैं। ज्योतिष पर्यन्त तामसिक देवसमूह शलाकापुरुषत्वको प्राप्त नहीं कर सकता। अब मैं भीषण नरकावासका कथन करता हूँ जो भीषण और नाना प्रकारके लाखों दुःखोंको दिखानेवाला है। इनमें प्रथम नरकका विस्तार एक लाख अस्सी हजार योजन है। फिर क्रमशः बत्तीस हजार, अट्ठाईस हजार, चौबीस हजार, बीस हजार, सोलह हजार और आठ हजार योजन विस्तार है जो केवल ज्ञानियों द्वारा उपदिष्ट है। इस प्रकार
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org