________________
११. ३२. ४ ]
हिन्दी अनुवाद
अप्रचला, स्त्यानगृद्धि, निद्राप्रचला, चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण उन्होंने नष्ट कर दिया । सातावेदनीय और असातावेदनीयके दुर्गको, दर्शनमोहनीय ( सम्यक्त्व प्रकृति, मिध्यात्व प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति ), चारित्र मोहनीय दो प्रकारका विख्यात है ( कषाय वेदनीय और नोकषाय वेदनीय ) उसमें कषाय वेदनीय सोलह प्रकारका है, और दूसरेका, जो नौ प्रकारका है, में बादमें वर्णन करूंगा। पहला जो कषाय चक्र ( अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ ) है, वह भाग्य के लिए दूषण और सातवें नरकका कारण है ।
घत्ता - अत्यन्त क्रोध, मान, माया और लोभ भी अत्यन्त दुस्तर होता है । वह उपशमको प्राप्त नहीं होता, भले ही तीर्थंकर उसको सम्बोधित करें ||३०||
२६७
३१
दूसरा अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभकषाय भी भारी होती है । प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया और लोभ भी चार हैं। उन्होंने जलते हुए-से ज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभको भी शान्त कर दिया । स्त्रीत्व और पुरुषत्वके भावको उड़ा दिया । भय, रति, अरति, जुगुप्साको उन्होंने जीत लिया । शोकके साथ हास्यको भी समाप्त कर दिया । सुर, नर, नरक और तियंच इन चार आयु कर्मों को भी और बयालीस भेदवाले नाम कर्मको भी, गतिनाम और जातिनाम, शरीरनाम और शरीरसंरचना, शरीर संस्थान, शरीर अंगोपांग और निर्माण, शरीरका बन्धन, वर्ण- गन्ध, रस-स्पर्श, आनुपूर्वी, अगुरुलघु भी लक्षित किया। उपघात और परघात भी कहा गया । उच्छ्वास, आतप, उद्योत, विहायोगति, त्रसकाय, स्थावर, स्थूल, सूक्ष्म, पर्याप्त और भी अपर्याप्त माना जाता है । प्रत्येकशरीर, साधारण शरीर, स्थिर अस्थिर, सकारण शुभ-अशुभ, सुभग, दुभंग, सुस्वर और दुस्वर । आदेय भी जगमें भला होता है, अनादेय यशः कीर्ति, अयशः कीर्ति और तीर्थंकरत्व |
घत्ता -चार गतियों में जन्मके नामसे गति नामकर्म आठका आधा चार होता है । इन्द्रियों के लेने से जाति नामकर्म पाँच प्रकारका है ||३१||
३२
इस प्रकार पाँच प्रकारके पांच नामों [ अर्थात् (१) औदारिक आदि पाँच शरीरोंका संघात, (२) कृष्ण - नील-पीतादि पाँच वर्ण, (३) कटु- तिक्त आदि पाँच रस, (४) ओदारिकादि शरीरनिबन्ध, (५) ओदारिकादि पाँच शरीर, औदारिक वैक्रियक और आहारक शरीरके अंगोपांग ( एकके त्रिभेद ) दो प्रकार दो ( सुभग, दुभंग, प्रशस्त, अप्रशस्त ), दो छह, (समचतुरस्र, वल्मीक न्यग्रोध कुब्ज वामन हुंड संस्थान और वज्रषंभनाराच, वज्रनाराच, नाराच असंप्राप्त अस्पृष्ट आदि संघट्टन), दो-चार ( नरकादि गतियां और गत्याद्यनुपूर्वियाँ), आठ प्रकार ( कर्कश - मृदुगुरु-लघु, शीतोष्ण-स्निग्ध-सूक्ष्म और स्पर्श नाम ), की प्रकृतियाँ जो नाम उच्चारण करनेपर एक-एक प्रकारकी हैं । संसारमें गोत्र भी ऊँच-नीच दो प्रकारका है, जिनको उन्होंने दूरसे त्याग दिया है। दान भोग उपभोगका निवारण करनेवाला, वीर्य और लाभके कारणोंका संहार करने
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org