________________
१४. ८.१३] हिन्दी अनुवाद
३२६ मारो-मारो कहते हुए समथं और प्रौढ़ पैदल सेनाके द्वारा मुक्त भयंकर हुंकारोंसे शत्रुसुभटोंके विघटनसे उठेहए शब्दोंसे आकाशमार्ग विदीर्ण हो गया है। रथिकों द्वारा छोडी गयी विशेषलगामसे चलते हुए रथोंसे डगमगाती हुई धरतीपर गिरे हुए पहाड़ोंके शिखरोंसे चन्द्रमा और रक्त चन्दन वृक्षोंका समूह चूर्ण-चूर्ण हो गया है। हार-दोर-केयूर-कटक-करधनी-कलाप और मुकुटोंपर अवलम्बित मन्दार मालाओंसे शोभित यक्ष तथा यक्षिणियोंके विमानोंसे जो आच्छादित है; जो श्रेष्ठ आराओंसे कराल चक्रोंका अनुगमन करते हुए माण्डलीक सूर सामन्त भालों, तलवारों और चापसमूहसे संकीणं और भयंकर है। गजोंके मदजलके धाराप्रवाहसे धूलके शान्त हो जानेपर, दिखाई पड़नेवाले दसों दिशाओंके मुखोंको भरते हए सैनिक नरों द्वारा विविध छत्रचिह्न उठा लिये गये हैं। जहां अनुचरोंके शरीरसे परिगलित स्वेद निर्झरकी बूंदों और अश्वोंके फेन-जलोंसे गीले तलभागमें गड़ते ( खचते हुए ) शकटोंसे मार्गप्रदेश संकीर्ण हो चुका है।
पत्ता-(ऐसी) उस प्रबल सेनाको आक्रमण करते हुए देखकर म्लेच्छकुलके राजाओंने कहा-"अब कौन शरण है, मरण आ पहुंचा है, चारों ओर शत्रु दौड़ रहा है ॥७॥
जो सामर्थ्यवान् राजा गिरिघाटी और नदियोंके मुखोंका उल्लंघन करता है, दसों दिग्गजोंको जीतनेवाला है, ऐसा राजा हम-जैसे लोगोंसे कैसे जीता जा सकता है। हा-हा, बहुत समयके बाद दैवसे निवेदित प्रलयकाल आ पहुंचा।" इस प्रकार म्लेच्छ महामण्डलके अधिराजों, आवर्त तथा किलातोंके वचन सुनकर धीर मन्त्रीने कहा,-"आपत्तिके समय 'हा' नहीं करना चाहिए, जिस प्रकार जीवनमें जो प्राप्त हो, उस सबको सहन करना चाहिए, हतभाग्य विधातासे कोई नहीं बचता। जहां युद्ध होगा, वहाँ मारकाट अवश्य होगी। इसलिए धैर्य ही मनुष्यका मण्डन है। दूसरेकी सेनाका विदारण करनेवाले जो विषधर हैं, वे तुम्हारे आदरणीय कुलदेव हैं। हे स्वामीश्रेष्ठ, तुम उनका सद्भावसे स्मरण करो। भयसे क्या, और बलके गर्वसे क्या ?" उन म्लेच्छराजाओंने भी इन वचनोंको समझ लिया। उन्होंने मेहमुख नामक नागोंका अपने मनमें ध्यान किया, जो विकट फनोंके समूहसे उद्भट, विषको ज्वालाओंसे गिरितटके वटवृक्षोंको दग्ध करनेवाले उठते हुए धुएंके समान मैले, अपने शिरोमणियोंकी किरणोंसे दिशाओंको आलोकित करनेवाले थे। अर्घ्य पुष्पोंकी रसवाससे दौड़कर आते हुए वे शीघ्र चिलबिलाते हुए वहां पहुंचे।
पत्ता-विषधरोंके राजा सर्पने कहा, "क्या ग्रह-नक्षत्रोंकों गिरा दूं ? जिसमें सुरवर क्रोड़ा करते हैं ऐसे मानसरोवरके क्या कमल तोड़ लाऊँ" ॥८॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org