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सन्धि १४
जिसने मगधराजको जीता है और अपने भुजबलसे प्रभासको दलित किया है, ऐसे वरतनुके मदको चूर करनेवाले भरतेशने परम शत्रु-राजाओंको नष्ट करनेवाले सेनापतिको आदेश दिया।
दुवई-तीन खण्ड धरतीको जीतनेवाला राजा जब अपने शिविरके साथ निवास कर रहा था, तभी कानोंमें कुण्डल पहने हुए मणिशेखर नामका देव वहां आया। अपने मुखरूपी चन्द्रमाकी किरणोंसे दिशाओंको धवलित करनेवाला वह प्रणामपूर्वक बोला, "नवमेघके समान गूंजती हुई मधुर और सुन्दर वाणीवाले तथा भुवनका भार उठानेवाले हे अत्यन्त अद्वितीय सज्जन, तथा विजयाध पर्वतपर विजय करनेवाले हे देव, उत्तरदिशामें जो देव मनुष्य-सूर्य और तीन खण्ड धरती है यह भी तुम्हारी है। प्रचण्ड शत्रुओंको खण्डित करनेवाले कुलमण्डन हे नाभेयतनय देव, तुम यदि पर्वतके गुहाद्वारको खोलते हो, वज्रके तीव्र दण्डप्रहारसे उसे प्रताड़ित करते हो, तो हे आदरणीय, मार्ग हो जायेगा ! तुम्हारा पुण्य महान् दिखाई देता है कि विजया पर्वतके शिखरके अग्रभागपर रहनेवाला मैं भी, जिसका दास हो गया हूँ।" तब राजा भरतने सेनापतिका मुख देखा। यशोवतीके पुत्रने उसे आदेश दिया, "हे मेघेश्वर, मेरा कहा करो। निश्चित रूपसे तुम पहाड़के किवाड़को प्रताड़ित करो। वह अच्छी तरह विघटित होकर, उसी प्रकार खुल जाये जिस प्रकार आहत दुर्जनका मन फूट जाता है।" अपने स्वामीके मनोरथको पूरा करनेके लिए उत्कण्ठित वह (सेनापति ) 'जो प्रसाद' यह कहता हुआ उठा। तरुण तोतेके शरीर और पन्नेके समान हरे तथा नाना प्रकारके गमनके विलासोंसे भरे हुए उस चंचल. अश्वरत्नपर श्रेष्ठ योद्धाओंके युद्ध में प्रहारोंसे प्रौढ़ वह सेनापति आरूढ़ हो गया। जाकर गिरिद्वारको पीठ देकर स्कन्धावारके सम्मुख अश्वको थामकर
पत्ता-लाल-लाल आंखोंवाले उसने हुंकारते हुए ( उस दरवाजेको) हटानेके लिए शत्रुमनुष्योंको प्रतिस्खलित और पहाड़को चूर-चूर करनेवाला वह दण्डरत्नपूरे वेगसे फेंका ॥१॥
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