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. १३. ३. १२]
हिन्दी अनुवाद धत्ता-वैजयन्तके निकट वनमें उसने शत्रुको ग्रहण करनेवाली सेनाको ठहरा दिया, जो गजोंके गरजनेपर इस प्रकार लगती है, मानो प्रलयकालमें समुद्र क्षुब्ध हो उठा हो ॥१॥
उपसमुद्र वैजयन्त और समुद्रके किनारोंपर ठहरा हुआ पहाड़की गेरूकी धूलसे शोभित वह सैन्य शाल वृक्षोंके घरोंमें नृत्यशालाओंसे सहित था, तालवृक्षोंके घरमें तुर्योंके तालोंसे महनीय था, ऊँची अटवीमें वह बलात्कार करनेवाला था, रक्ताशोक वृक्षकी गोदमें अशोकको धारण कर रहा था। चम्पक वृक्षोंमें वह स्वर्णसे युक्त था। पुन्नागप्रवरमें श्रेष्ठ चरितवाला था। शिरीष वृक्षोंमें शिरीष ( मुकुट ) से प्रसादित था। अनेक वंशवृक्षोंमें जो नृवंशोंसे विराजित था, अपने सुन्दर रूपमें स्थित वह वेश्याभवनके समान था, भुजंग वृक्षोंसे सहित होनेपर उसमें लम्पट घूम रहे थे, मयूरोंके सुन्दर शब्दोंमें वह मंगल ध्वनिसे गम्भीर था। नदियोंके कूटतटोंपर वह क्रूर शत्रुओंके वधमें आदर करनेवाला था। शाकवृक्षोंसे सहित होनेपर प्रभुके साथ वह विषादहीन था। मातंग ( आम्रवृक्ष ) में स्थित होनेपर वह लक्ष्मी और चन्द्रमाके समान था। कवि ( राजा विशेष ) के छिपनेपर वह कवियोंके द्वारा प्रशंसनीय था, जो हरिवरके निकट होनेपर हरिवरसे भूषित था। दूसरोंकी लक्ष्मीको ग्रहण करने में उत्कण्ठित समस्त सैन्य इस प्रकार वनमें ठहर गया। सूर्य अस्त हो गया। दिशाएं अन्धकारसे भर उठीं। राजा रातमें उपवासमें स्थित हो गया।
पत्ता-पृथ्वीके स्वामीने निज कुलचिह्नों, धनुषों और चक्रोंकी पूजा की। महान् शत्रुओंका हरण करनेवाले मन्त्रका ध्यान किया। उस द्वीपके किवाड़ खुलकर रह गये ॥२॥
उसी अवसरपर सूर्य उग आया। भरतेशने जिनवरेन्द्रको नमस्कार किया। उसने शीघ्र अपना रथ इस प्रकार हांका कि जैसे सम्पूर्ण सुन्दर पुण्य हो। कोड़ोंके प्रहारोंसे घोड़े शीघ्र प्रेरित हो गये, हवाके स्पर्शके विस्तारसे ध्वज फहरा उठे। शब्द करते हुए चक्रोंसे साँप क्षुब्ध हो उठे। रथ प्रहरणोंसे परिपूर्ण और स्वर्णमय था। मणियोंके घण्टाजालोंसे जो झनझना रहा था, मानो योद्धाओंके भारसे आक्रान्त होकर शब्द कर रहा हो, महासर ( जल या स्वर ) वाले समुद्रके जलको कई योजनों तक लांघनेके बाद राजाने धनुष हाथमें ले लिया। कोटीश्वर (धनुष ) क्या पर्वको तरह, पर्वालंकृत ( उत्सवोंसे अलंकृत / गांठोंसे अलंकृत ) हर्ष उत्पन्न नहीं करता। वह सुकलत्रकी तरह सुविशुद्ध वंश (कुलीन बांस ) था, तथा उसका शरीर गुणोंसे ( दया नम्रतादि गुण | डोरी) से नमित था। डोरी खींचकर कानों तक लीलापूर्वक ले जाया गया हाथ ऐसा शोभित हो रहा था, मानो श्रवण नक्षत्रमें चन्द्रमा स्थित हो। उसपर तीर इस प्रकार सोह रहा था जैसे सूर्यसे निमंल (विकसित ) कुण्डलरूपी शतदलपर नव दण्ड नाल हो।
घत्ता-डोरी और स्थिर हाथसे आकर्षित कानों तक लगा हुआ वह ( तीर) जैसे जाकर राजाओंसे धनुषको कुटिलता कहता है कि वह मेरे साथ भी दुष्टता धारण करता है ॥३॥
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