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हिन्दी अनुवाद यतिवरोंके तपमें भंगका प्रदर्शन करनेवाले कामदेवके धनुषके द्वारा जो पुनः छोड़ा गया, और जो फिरसे कामदेवके द्वारा धनुषपर नहीं धारण किया गया ऐसा वह इक्षुरस, मानो दोषोंका निवारण करनेवाली तपरूपी आगमें उपशम भावको प्राप्त हुआ। युवराजके द्वारा हाथपर ढोया गया और जिननाथके द्वारा बार-बार देखा गया।
धत्ता-देहरूपी घरके मनरूपी कुण्डमें पिये गये रसके बारे में यह कहा गया कि कामदेवके धनुषका सार ध्यानको आगमें होम दिया गया ॥१०॥
तब नगाड़ोंके शब्दोंसे दिशाओंके अन्त भर उठे। देवश्रेष्ठोंने कहा, "भो! बहुत अच्छा दान"। पांच प्रकारके रत्नोंसे विशिष्ट धनको धारा उसके घरके आंगनमें बरसी, जो मानो शशि
और सूर्यके बिम्बोंकी आंखोंवाली नभरूपी लक्ष्मीके कण्ठसे गिरी हुई कण्ठी हो, मोहसे आबद्ध नवप्रेमकी लज्जाके समान, स्वर्गरूपी कमलकी मालश्रीके समान, रत्नोंसे समुज्ज्वल उत्तम गजपंक्तिके समान, दानरूपी महावृक्षको फल सम्पत्तिके समान, श्रेयांसके लिए कुबेरके द्वारा दी गयी (पिरोयी गयो ) जो नक्षत्रमालाके समान एक जगह पुंजीभूत हो गयी हो। एक सालका उपवास पूरा करनेवाले परमेश्वरने उसे अक्षयदान कहा। उस दिनसे अक्षय तृतीया नाम सार्थक हो गया। घर जाकर भरतने श्रेयांसका अभिनन्दन किया, और उस प्रथमदान तीर्थंकरकी वन्दना की और कहा, "तुम्हें छोड़कर और कोन गुरुका सम्मान कर सकता है; तथा पात्र विशेषकी दानविधि जान सकता है। तुम्हें छोड़कर कौन सोच सकता है; किसके घरमें परमात्मा ठहर सकते हैं। दिशाओंमें अपने यशका प्रसार करनेवाले तुम्हें छोड़कर और दूसरा कौन कुरुकुलरूपी आकाशका सूर्य हो सकता है? हे श्रेयांसदेव, जय यह कहते हए सुरवर और नरवर सामन्तोंने उनकी संस्तुति की।
घता-धरतीतलपर धर्मरूपी रथके ऋषभ जिंन और श्रेयांसके द्वारा बनाये गये व्रत और दानरूपी ये सुन्दर चक्र, देवेन्द्रको भी सन्तोष देनेवाले हैं ॥११।।
१२ "लगी हुई हैं दयारूपी पताकाएं जिसमें, ऐसा कामदेवरूपी राजाका नाश करनेवाला धर्मरूपी महारथ इन दोनोंके द्वारा (व्रत और दान ) से चलता है।" यह कहकर भरतेश्वर चला गया। यहां जिनेश्वर धरतीपर विहार करने लगे। तीन ज्ञानों, शुद्ध परिणाम और मनःपर्यय ज्ञानसे अचल चित्त वह इस ढाई द्वीपमें मनुष्य जो-जो सोचता है, उसे जानते हैं।
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