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९. १५. १९ ]
हिन्दी अनुवाद
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महान था । जो कुलके समान समुन्नतिको प्राप्त होकर शोभित था । वह निशाचर-नगरकी तरह पलास से युक्त ( पलाश वृक्षोंसे युक्त, मांसभोजनसे युक्त ) था । जो सुर भवनके समान रम्भादि ( अप्सराओं, वृक्षों ) से प्रसाधित था। अयोध्या के समान सुयसत्थों ( शुकसमूहों, छात्र समूहों ) से सहित था । जो श्रुतिवचनके समान (नित्य फलवाला और सुन्दर) था, संग्रामकी तरह वन वियसियउप्पलु ( जलमें विकसित कमलवाला; व्रणोंसे ऊपर उछलते हुए मांसवाला ) था, नयनके समान जो अंजन ( आँजन वृक्ष विशेष ) से शोभित था, जो स्तनयुगलके समान चन्दन ( वृक्ष विशेष और चन्दन ) से प्रिय था, रमणीके ललाटकी तरह तिलक ( वृक्ष विशेष और तिलक ) से अंकित था, जो सहस्रबाहु की तरह करवृन्दों ( करों तथा करौंदी वृक्षों) से व्याप्त था जो तूयंके समान ताल ( वृक्ष और ताल ) से, और सज्ज ( सर्जं वृक्ष विशेष एवं षड्ज स्वर ) से गीतके समान, और मद्द ( वृक्ष और जबर्दस्तीका युद्ध ) से नृपतिके भवनके समान शोभित था, जो नागबेल्लि ( नागों की पंक्तियों और लता विशेषों) से पातालकी तरह; तथा सन्ध्याकी तरह रत्तयन्द दाविरउ ( लाल चन्द्रमा दिखानेवाला, रक्तचन्दन दिखानेवाला ) था । जिसे अपशब्दके समान कविवृन्दों ( कवि समूह, वानर समूह ) ने छिपा रखा था। जी तलवारके समान ( सुनीरसे मुक्त ) नहीं था । महीरूपी भामिनीके मुखके समान जो मधुसे लिप्त था, और रत्नोंसे सहित भुजंगों ( सांपों एवं गुण्डों ) से भुक्त था ।
घत्ता -जो कुमुदोंके आमोदके बहाने वह उद्यान जो कुछ कहता है, वह मानो नाना पक्षियोंके स्वरोंके द्वारा प्रभुको स्तोत्र कहता है || १४ ||
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उस नन्दनवनमें वटवृक्षके नीचे विशाल चट्टानपर बैठे हुए, नये कनेरकी कुसुमरजके समान रंगवाले तथा पद्मासनमें स्थित प्रभु सोचते हैं- " संसार में विशिष्ट सुख नहीं है, सुखके आकार में मैंने 'दुःख ही देखा है। अक्षयका नाश करनेवाला यह नाट्य अच्छा नहीं है । गहनोंसे शरीरका भार बढ़ाता है, काम देहका संघर्षण और क्षय । गीतके बहाने मूखं जीव रोता है । इसलिए उसे शिवश्रेष्ठकी भावना करनी चाहिए कि जिससे यह जीव दुबारा जन्म न ले । वह अवगाह, वीर्यं, सूक्ष्मत्व, समत्व, ज्ञान, दर्शन, अगुरुलघुत्व और अव्याबाधत्व सिद्धोंके इन आठ गुणोंके समूहका ध्यान करते हैं । इस प्रकार स्वामी मोक्षमार्गको सम्भावना कर अप्रमत्त गुणस्थानमें लगते हैं ( आरोहण करते हैं ), वहाँ जैसे ही दस प्रकृतियोंसे मुक्त होते हैं, वैसे ही वे एक क्षण में आठवें अपूर्व करण गुणस्थान में आरूढ़ हो गये । वह पहले शुक्लध्यान में लीन हो गये, वितर्कविचार लक्षण और श्रुतज्ञानसे सहित उसमें लीन मुनि ॠषभने सविभक्त अनिष्ट छत्तीस प्रकृतियाँ जीत लीं । फिर सूक्ष्म साम्पराय ( १०वां गुणस्थानको प्राप्त कर और उसके ध्यान से लोभको समाप्त कर, वह 'उपशान्त कषाय' हो गये । कतकफल जैसे जलमें होता है, उसी प्रकार वह हो गये । फिर वह क्षीणकषाय गुणस्थान में स्थित हो गये और दूसरे शुक्लध्यानमें अवतीर्णं हुए। सोलह प्रकारको प्रकृतियोंके रजका नाश करनेवाले शुक्लध्यानका एकत्व वितकं भेद ।
धत्ता - त्रेसठ प्रकृतियोंके नाश होनेपर मन रहित परमात्माके स्वभाववाले अनिन्द्य और ज्ञानस्वरूप हो गये ||१५||
१. अनन्तानुबन्धी आदि १० प्रकृतियाँ ।
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