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३. २१. ५ ]
हिन्दी अनुवाद
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घत्ता - हे मन्थरगामी त्रिभुवनस्वामी, आपकी जय हो, इतना माँगा हुआ दीजिए कि जहाँ जन्म नहीं है, कर्म नहीं है, पाप नहीं है और न धर्म है, उस देशमें मुझे ले जाइए || १९॥
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देवकी स्नान करा कर भक्तिसे प्रणामकर, पटुपडहके नादों, थारी-दुगिगके आघातों, दुणिकिटिम और टक्कों, झंझा और सघोक्कों, भेभंत भंभाहों, ढक्का और हुडुक्कों, करडों, काहलों, झल्लरियों, महलों, ताल और शंखों और भी असंख्यों दिशाओंको बहरा बना देनेवाले जयतुर्य घोषोंके द्वारा, जिसके अनेक मुख हैं, अनेक नेत्र हैं, जिसने हाथोंसे विशाल आकाशको आच्छादित कर रखा है, हर्षसे विह्वल तरुणीजनसे घिरा हुआ ऐसा इन्द्र रसभावोंसे श्रेष्ठ विविध अंग निक्षेपोंके द्वारा उछलता है, गिरता है, और धर्मके अनुरागसे नृत्य करता है। पैरोंके गिरने से
पर्वत फट जाता है। धरतीपीठ कड़कड़ होता है । शेषनाग घूमता है, थर्राता है, अपना शरीर सम्हालता है, क्रोधसे फुफकारता है, कठोर विष उगलता है, विषकी ज्वाला फैलती है, धक धक हुरहुर करती है, तापसे कड़कड़ करती है, जलचरसमूहको नष्ट करती है । समुद्र भी चमकता है, स्वेच्छासे उल्लसित होता है ।
घत्ता - नक्षत्र टूटते हैं, दिशाएँ मिलती हैं, महीविवर फूटते हैं, नेत्रोंके लिए आनन्ददायक इन्द्रके नाचनेपर गिरिशिखर टूट जाते हैं ||२०||
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इस प्रकार नृत्य कर और श्री ऋषभको लेकर इन्द्र अपने ऐरावतके कन्धेपर चढ़ गया । अप्सराओं और देवोंके साथ वह चला । वह पवनसे आन्दोलित ध्वजपटोंसे चंचल था । संगीतके कोलाहलके शब्दके साथ सुरबलके आकाशमें दौड़नेपर तथा शरीरकी कान्तिके भारसे चन्द्रमाको निवारण करनेवाले इन्द्रके ऊपरसे आनेपर नीचे स्थित नक्षत्रगण ऐसा दिखाई देता था, मानो
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