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हिन्दी अनुवाद भौंहोंका संचालन करना, खांसना, चोटी खोलना, हाथ मोड़ना, दूसरेके आसनको खिसकाना, सहारा लेना, दर्पण देखना, अत्यधिक बोलना, अपने गुणोंकी प्रशंसा करना, अत्यन्त विकारग्रस्त होना, शरीरको देखना, इष्ट, आगम और देवकी निन्दा करना, पैर फैलाना ( इसके सिवा ) और जो विनयसे रहित तथा गुरुजनोंके द्वारा गहित बातें हैं, उन्हें नहीं करना चाहिए। राजाके आदमीको मानना चाहिए और अपनी दीनताको छिपाना चाहिए।
पत्ता-मैंने ये सेवकके लक्षण कहे । परन्तु जो स्वाभिमानी है उसके लिए वन ही अच्छा। द्वारपालके द्वारा प्रेरित दण्ड उसका ( स्वाभिमानीका ) अंग न छुए ।।२।।
सुरवर श्रेष्ठ आदरणीय ऋषभ जब इस प्रकार विराजमान थे, तबतक अवधिज्ञानको धारण करनेवाला, तथा बारह सूर्योंके समान वजको धारण करनेवाला इन्द्र सोचता है कि परमेश्वरके द्वारा रमण किये गये बीस लाख पूर्व वर्ष कुमारकालमें बीत गये। और धरतीका भोग करते हुए त्रेसठ लाख पूर्व वर्ष चले गये। लेकिन वह आज भी चंचल घोड़ोंको देखते हैं। आज भी अपने मनमें मतवाले हाथियोंको मानते हैं, आज भी ध्वज सहित रथोंको चाहते हैं, आज भी उनकी घर और अनुचरसमूहमें रति है। आज भी वह कामसुखसे विरक्त नहीं होते। आगको इंधनसे कोन शान्त बना सकता है, नदियोके जलोसे समुद्रको कोन शान्त कर सकता है, भोगके द्वारा कौन जीवमें धैर्य उत्पन्न कर सकता है ? कर्मका विधान सबसे बलवान होता है। जब देव जानते हुए भी मोहग्रस्त होते हैं तब किसी अज्ञानीको मैं क्या कहूँ?
__घत्ता-रतिसे रंजित यह जग उन लोगोंके लिए अच्छा लगता है, कि जो और दूसरी युक्ति नहीं जानते । अपनी स्त्रियों और पुत्रोंसे मोहित यह जग नीचेसे नीचे गिरता है ।।३।।
दुष्ट और धृष्ट तृष्णामें तुम जलते हो, आज भी इस धनसे तुम्हारी तृप्ति नहीं हो सकती। आज भी भोगरति नष्ट नहीं होती, आज भी वह परम गतिकी चिन्ता नहीं करते। आज भी स्वामीका हृदय शान्त नहीं होता, वह मानव रमणियोंसे रमण करने में रमता है। अट्ठारह कोड़ाकोड़ी सागर समय बीत गया है । धर्म और कर्मका अन्तर नष्ट हो गया है, दर्शन, ज्ञान और श्रेष्ठ
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