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९.४.७] हिन्दी अनुवाद
१८७ तरुण सूर्यके समान आभावाले, हे तपश्रीके स्वामी, हे देवदेवेश, हे परम-परमेश, दिगम्बर वेष अपने शरीरके शोषणसे क्या होगा, क्यों नहीं बताते । न हंसते हो न रमण करते हो।" यह कहकर चाटुकर्मसे सज्जित आर्योंने उन्हें बुलवाना चाहा परन्तु स्वामी तब भी नहीं बोलते । घरसे अपने चित्तको हटानेवाले वह धरतीतलपर विहार करते हैं।
पत्ता-चर्यामागंमें प्रवृत्त जब वह (आहारके लिए) घूमते हैं तभी राजा श्रेयांसने हस्तिनापुरमें स्वप्न देखा ॥२॥
पलंगपर सोते हुए, अपने नेत्र मलते हुए, रात्रिके अन्तिम प्रहरमें सोमप्रभके अनुज श्रेयांसन स्वप्न देखा-चन्द्र-सूर्य-महागज-सरोवर-समुद्र-कल्पवृक्ष, बलसे उत्कट सिंह, अपने बाहुओंसे युद्धको जीतनेवाला, शत्रुका छेदन करनेवाला, भार उठानेमें समर्थ कन्धोंवाला, धनुर्धारी महासुभट । पूंछका पिछला भाग हिलाता हुआ सींगोंसे उज्ज्वल वृषभ, और घरमें प्रवेश करते हुए गुफासहित मन्दराचलको देखा। इस प्रकार दृष्टिके आकर्षणको समाप्त करनेवाले स्वप्नसमूहको उसने रात्रिके अन्तमें देखा, उसने अपने मनमें विचार किया। प्रभातके समय उसने महाआयुवाले अपने भाई ( सोमप्रभ ) से संक्षेपमें कहा।
__ घत्ता-यह सुनकर कुरुनाथ स्वप्नफलका कथन करता है-कोई विश्वमें उत्तम देव तुम्हारे घर आयेगा-॥३॥
चन्द्र, रवि, सुभट, सिंह, सरोवर, समुद्र और वृषभके गुणोंसे युक्त सचल मन्दराचलकी तरह अपनी गतिसे महागजका उपहास करता हुआ, नीली जटाओंके समूहसे व्याप्त, मेघमालाओंसे श्याम पर्वतकी तरह, ऐरावतकी सूंड़के समान बाहुवाला, लटकते हुए प्रारोहोंसे युक्त वटवृक्षके समान वह, तब दूसरे दिन नगरमें प्रविष्ट हुए। नर-नारियोंने निरंजन उन्हें देखा। दौड़ते हुए जनपदके सम्मर्दन और जय-जय शब्दसे कलकल होने लगा। कोई कहता है-यहाँ देखिए जहाँ मैं
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