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७.६.९]
हिन्दी अनुवाद होता है । धन लोभसे अन्य भृत्य होता है, (यह) जीव मोहके द्वारा मुग्ध होता है । मतवाला वह, अन्यको कहता है कि यह हमारा है। नहीं जानता कि किस प्रकार वह सबके द्वारा छोड़ दिया जाता है। आधे पलमें रथवर, हयवर, गजवर और चामर सहित पताकाएँ दूसरी हो जाती हैं। परमार्थमें जगमें कोई भी किसीका नहीं है । पृथ्वीका ईश ( राजा ) भी अकेला होता है।
घत्ता-रागके द्वारा बाँधा गया इन्द्रियोंसे लुब्ध सुख भी मुझे अन्य प्रतीत होता है। अपने स्वभावको नहीं देखता, दूसरेकी आकांक्षा करता है इस प्रकार जीव महा आपत्ति पाता है ॥४॥
चार कषायरूपी रसमें आसक्त और मिथ्या संयमके वशीभूत होकर ( यह जीव ) नाना जन्मोंवाले संसारमें घूमता है। जब यह नरकगतिमें उत्पन्न होता है, तब नारकीय समूहके द्वारा अवरुद्ध होकर तिल-तिल टुकड़े कर दिशाओंमें विभक्त कर दिया जाता है। बार-बार पुकारा जाता और भत्सित किया जाता। विद्युत्की तरह चंचल तलवारोंसे विदारित किया जाता। अकेला ही बहुतोंके द्वारा आक्रान्त, स्खलित, दलित, पदमर्दित और फेंका जाता है। नीचे किया जाता, घुमाया जाता, झुकाया जाता, शूलीमें और यमके दांतोंमें। पछाड़ा और मोड़ा गया, धरतीपर गिर पड़ता है। चिल्लाता हुआ करपत्रों ( आरों) से फाड़ा जाता। भालोंसे विदारित टुकड़े-टुकड़े हो जाता। बड़े-बड़े ऊखलोंमें मूसलोंसे कूटा जाता। शक्तियोंसे पिरोया गया और यन्त्रोंसे पीड़ित किया जाता। जलती हुई आगकी ज्वालाओंसे जलाया जाता, मर्मभेदी अपशब्दोंसे बोला जाता, सेल, भालों और लौह-अंकुशोंसे छेदा जाता, पीप-कुण्डमें ढकेल दिया जाता, रक्तसे शरीर नहा जाता।
पत्ता-इस प्रकार मनमें क्रोध धारण करते हुए और युद्ध में प्रहार करते हुए उसका खण्डित शरीर होकर भी जा लगता है। इस प्रकार तमसे अन्धे नारकीय समूहमें पलमात्रका भी सुख नहीं है ॥५॥
शृंगधारी पशुओं-पक्षियों, दाढ़वाले और नखवाले पशुओंमें संसारके संगमको भोगता हुआ यह जीव निकल नहीं पाता। कौआ, बगुला, कोयल, चक्रवाक, सारस, चारभास, भैरुण्ड, सिंह, शरभ, सुअर, सालूर, घार, मोर, मण्डल, मार्जार ( बिलाव), कीर, कुरर, कुंजर, सारंग, लावा, पारावत, तुरंग, मुर्गा, वानर, महिष, मराल, मेष, वृषभ, खर, करभ, शृगाल, सेढ, सरढ, तरच्छ, रोछ, मगर, महोरग, कच्छप और मत्स्यों आदिकी तीखी तिर्यक् गतिके दुःखोंको देनेवाली नाना योनियों में उत्पन्न होता हुआ बलका नाश होना, बेड़ियोंसे जकड़ा जाना, भारका उठाना, नाना
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