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७. १२.६] हिन्दी अनुवाद
१३९ धूम्रसे गिरि-गुफाओंको सुवासित करनेवाले हे इन्द्रदेव, तुमने भी मेरी रक्षा नहीं की। हाय, मुझे मनुष्य होना होगा तथा कृमियों और मलसे भरे गर्भमें रहना होगा। गर्भसे निकलनेपर दुःख देखना होगा ? नारीके स्तनसे निकलनेवाला दूध पीना होगा ? हाय-हाय देवलोक, मैं तुम्हें कहां देखूगा ? नष्ट होनेवाले शरीरमें मैं वास नहीं चाहता। वह मनुष्यत्व मरघटमें जाये, अच्छा है मैं वनमें चन्दन या वन्दन वृक्ष होऊँ। आठ प्रकारके रौद्रभावोंसे प्रेरित तथा सम्यक् दृष्टिसे विरहित मिथ्यादृष्टि, हाय-हाय करता हुआ दोनों हाथ उठाये हुए, इस प्रकार मरते हैं और देव वृक्ष बनते हैं।
पत्ता-जिनधर्मसे विमुख, दुर्नयोंके प्रति उन्मुख क्षयकालमें नष्ट हुआ कौन मनुष्य विविध मदोंसे मत्त मिथ्यात्वके द्वारा गहन संसारमें नहीं डाला जाता ॥१०॥
शराब आदिकी आकृतिवाला और चौदह राजू प्रमाण, तथा जीव और अजीव ( द्रव्यों) से अच्छी तरह व्याप्त यह विश्व नित्य और निश्चल है। अनादि-अनन्त तथा केवलज्ञानके अवलोकनका विषय आकाशमें स्थित है। जो सघन रूपसे छह द्रव्योंसे भरा हुआ है। उसे किसीने बनाया नहीं है, और न किसीने उसे उठा रखा है। पुद्गल जीव और भावसे निर्मित पर्यायोंसे कालके वशसे परिणमित होता रहता है। पहला ( अधोलोक ) दानव और नरकोंका निवास है जो उलटे सकोरेके आकारका है। दूसरा ( मध्यलोक ) वज्रके समान मनुष्योंका घर है। जिसमें पदार्थों (जीवादिकों) की प्रवृत्तियां होती रहती हैं। तीसरा लोक (ऊर्ध्वलोक ) मृदंगके आकारका है, और जिसमें कल्प-अकल्प देवोंका निवास है। मोक्ष भी छत्तेके आकारका है जो वहां पहुंच जाता है, वह अजर-अमर है । संसारीके सुखका क्या वर्णन करूं, मैं उसे परमाणुमात्र भी सुख नहीं देखता।
घत्ता-देवने ( गौतम गणधरने ) हंसकर कहा-चार गतियोंमें मरते हुए और बार-बार उत्पन्न होते हुए इस जीवने सुख-दुःखसे निरन्तर भरपूर इस त्रिलोकके भीतर क्या नहीं भोगा? ॥११॥
१२
प्रचुर मेदाके बढ़नेपर यह जीव कुत्ता और शृंगालके योग्य शरीरवाला बनता है। तब भी यह जीव संसारमें उस शरीरको श्रेष्ठ मानता है। हड्डियोंरूपी लकड़ियोंके ढाँचेपर निर्मित, लम्बीलम्बी स्नायुओंसे बंधा हुआ, पसलियोंरूपी तुलाओंसे अच्छी तरह कसा हुआ, जोड़ों-जोड़ोंपर कीलोंसे जड़ा हुआ, पीठरूपी बांसके खम्भेपर उन्नत मानवाला, मुड़ी हुई थूनियोंकी तरह जांघोंवाला,
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