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८.१५.१८ ]
हिन्दी अनुवाद
१८१
मण्डन बुद्धि है, तपश्चरणका मण्डन चित्तको विशुद्धि है, कुलवधूका मण्डन अपने पतिको भक्ति है, राजाका मण्डन मन्त्रशक्ति है, मानका मण्डन अदैन्य वचन है, भवनका मण्डन श्रेष्ठ नारीरत्न है, कविका मण्डन अपने प्रबन्धका निर्वाह है । आकाशका मण्डन सूर्य और चन्द्र हैं, प्रियप्रेमका मण्डन प्रकोप है, प्रारम्भका मण्डन खलवियोग है। किंकरका मण्डन अपने स्वामीका काम करना है । राजाका मण्डन प्रजाका भरण करना है । निश्चयसे लक्ष्मीका मण्डन पण्डितजन हैं, और पण्डितजनका मण्डन मत्सरतासे रहित होना है । पुरुषका मण्डन परोपकार है। जिसका पालन धरणेन्द्रने निर्विकार भावसे किया है, ऐसे नमि और विनमि दोनों भाइयोंका उद्धार कर दिया, उसकी शोभाको कौन पा सकता है । अथवा दूसरेसे क्या हो सकता है ? देव ही सब रूपमें परिणत हो सकता है ।
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घत्ता - दूसरा क्या देता है और क्या लेता है । पुण्य ही सबका स्वामी है । उसी पुण्यसे भरतकी कीर्ति प्रमुख और आकाशगामी है || १५॥
इस प्रकार सठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त इस महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा और महामन्त्री मरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका नमि-विनमि राज्यप्राप्ति नामका आठवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥८॥
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