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४. ८. १५
हिन्दी अनुवाद
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स्नायुओं बद्ध, चमसे लिपटा, लारको खानेवाला, रक्तजलसे आर्द्र, प्रचुर मलसे कलुष, मैलेको धारण करनेवाला, कुत्सित गन्धवाला, नौ प्रकारके छन्दवाला, ( यह शरीर ) निद्रामें आसक्त होकर प्रमत्तकी तरह पड़ जाता है, रातमें, सोये हुए मृतक के समान । ( सबेरे ) मूखं उठता है, धनकणसे लुब्ध । कृत्रिम यन्त्रके समान, पथके श्रमसे थका हुआ, दिनमें घूमता है । प्राणोंको हरण करनेवाली युवतियोंके विरहमें पड़ता है । रोगसे ग्रस्त, भूखसे खिन्न, पित्तसे प्रदीप्त, श्लेष्मासे युक्त, पवन से भग्न, मानव-खियोंके शरीरका सेवन करते हुए गुणवानोंको सुख नहीं होता, दुःख बढ़ता है ।
घत्ता - दूसरेसे उत्पन्न, सैकड़ों व्याधियोंसे युक्त, क्षायिक कर्मरूपी बन्धका करनेवाला जो सुख इन्द्रियोंसे प्राप्त है, विद्वान् उसका सेवन क्यों करता है ?” ||७||
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तब न्यायका विचार करनेवाले शुभफलके वृक्ष कुलकर स्वामी ( नाभिराज ) ने कहा, "सुर, नर और विद्याधरोंने जिनकी सेवा की है ऐसे हे देव, यह सच है कि मनुष्य जन्म सुन्दर नहीं है, वह सुख चाहता है, परन्तु दुःख भोगता है । बड़े होनेपर बुद्धिरूपी आँख चली जाती है, मौतसे डरता है, परन्तु यमसे नहीं चूकता। सचमुच मनुष्य शरीर अपवित्रतासे जन्मा है । सचमुच इन्द्रियसुख सुख नहीं होता । सचमुच तुम परलोकमें सुखकी इच्छामें कुशल हो । सचमुच यद्यपि संसार असार है तब भी हे सुभट, मेरे अनुरोधसे सुन्दर हंसकी तरह वाणीवाली श्रेष्ठ कमलमुखी दो प्रणयिनियोंसे प्रणयपूर्वक विवाह कर लो ।" यह सुनकर ऋषभजिन अपना सिर पीटते हुए और होनहारका विचार कर नीचा मुख करके स्थित हो गये । अवधिज्ञानी नय-विनयके विचारक लक्ष्मीरूपी गृहिणी कान्त परमेश्वर अपने मनमें सोचते हैं - " आज भी मुझमें चारित्रावरण कर्म है, जो तेरह लाख पूर्व तक अलंघ्य है ।" तब अपने पुत्रके अन्तरंगको, यह जानकर कि वह रमणियोंसे रमण करनेका इच्छुक है, कुलकर नाभिराजके द्वारा प्रेषित और रत्नाभूषणसे विभूषित
घत्ता - फल, पत्र, फूल और पल्लव हाथमें लिये हुए मन्त्रियोंने कच्छ और महाकच्छ राजाओंसे उनकी स्तनभारसे नम्र कन्याएँ मांगी ||८||
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