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सन्धि ४
घरमें फिरसे स्वजनों और परिजनोंके द्वारा जिनजन्मका जो उत्सव किया गया, उसे देखकर विषधर, नर, विद्याधर और देवेन्द्र कौन ऐसा था जो विस्मित नहीं हुआ ?
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शरीरके अनुरूप और रूपको रंजित करनेवाले प्रशस्त भूषण और वस्त्र देकर, मालती - मालाओं को घुमाती हुई, स्तनोंमें दूधरूपी अमृतधारावाली, अशोक वृक्षके पल्लवोंके समान हाथोंवाली अप्सराओंको धायके रूपमें सौंपकर, अनन्तदेवोंको किकरके रूपमें देकर, अत्यन्तभावसे शिशु स्वामीको नमस्कार कर विमल ज्ञानवाले नाभिराज और मरुदेवी, दोनोंकी पूजा और प्रशंसा कर और अनुमति लेकर वज्रपाणि ( इन्द्र ) अपने घर चला गया, अयोध्यामें बालक दिन दूना रात चौगुना बढ़ने लगता है । सेजपर लेटा हुआ नग्न बालक ऐसा लगता है मानो सिद्धिके मार्गको देख रहा हो । बालकके बढ़नेपर ऋद्धि विशेष बढ़ती है, खेलनेपर धैर्यका विलास खेलने लगता है । उसके बैठनेपर चंचल आँखोंवाली लक्ष्मी बैठ जाती है । चलनेपर लक्ष्मी साथ चलती है । प्रसार करनेपर स्थिर कान्ति फैलने लगती है । उसके खड़े होनेपर कीर्ति उठ खड़ी होती है । स्खलित अक्षर बोलनेपर भी उसने बावन ही अक्षर जान लिये । धरतोपर थोड़े-थोड़े पद रखते हुए, चिर पूर्वांग-पद उसे स्मरण में आ गये। जिनरूपी चन्द्रमाके शरीरकी कलाएँ ग्रहण करते ही उसने चौसठ कलाओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया ।
पत्ता -- इन्द्रियों की वृद्धिसे उनकी बुद्धि दृढ़ होती है, दृढ़ बुद्धिसे वह शास्त्रका सम्मान करते हैं । और शास्त्रका चिन्तन करते हुए परमेश्वरने अवधिज्ञानसे विश्वको जान लिया ||| १ ||
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