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प्रस्तावना
४३ गोत्रके थे । इनके पितामहका नाम अन्नय था और पिताका ऐयण । मांका नाम था देवी। पत्नी कुंदव्वासे भरतके सात पुत्र हुए-देवल्ल, भोगल्ल, नन्न, सोहन, गुणवर्म, दंगय्य और संतय्य । भरत श्यामशरीर और दृढ़ व्यक्तित्ववाले थे। उन्होंने अपने कुलका उद्धार किया। बादमें वह राष्ट्रकूट नरेश कृष्णराज II1 के मन्त्री, सेनानायक और दानविभागके अधिष्ठाता बने । भरतके बाद कवि नन्नके आश्रयमें था, जो थोड़ा नामका लोभी था। उसके निकटके लोगोंने कविसे काव्यमें सर्वत्र नन्नके नामका उल्लेख करनेका अनुरोध किया। कृष्णराज III के बाद उसका पुत्र खुट्टिगदेव गद्दीपर बैठा । उसके समय धारानरेश श्री हर्षदेवने आक्रमण करके मान्यखेटको धूल में मिला दिया। यह 972 ईसवीकी बात है। णायकुमारचरिउकी रचनाके समय कृष्णराज III का ही शासनकाल था। महापुराणकी रचना कन्नू पिल्लईके एफेमेरिसके अनुसार (जसहरचरिउ द्वि. सं. की भूमिका पृ. 21 ) 11 जून 965 में समाप्त हो चुकी थी। लगता है इसके बाद मन्त्री भरतका निधन हो गया और उसका पुत्र नन्न महामन्त्री पदपर प्रतिष्ठित हुआ । 'णायकुमारचरिउ' में कविका उल्लेख है
सिरिकण्हरायकरयल-णिहिय असिजलवाहिणि दुग्गयरि धवलहरसिहरि-हय मेहलि पविउल मण्णखेडणयरि ।
काव्यके प्रारम्भमें सरस्वतीके प्रसादकी कामना करता हुआ कवि मान्यखेड नगरीको श्रीकृष्णराजकी हाथमें स्थित तलवाररूपी नदीसे दुर्गमतर बताता है और कहता है कि उसके धवलगृहके शिखरोंसे मेघकुल आहत हो उठते हैं। यहाँ कृष्ण और उनकी तलवारका पानी है, परन्तु कविसे काव्यरचनाका अनुरोध करनेवाला भरत नहीं है, उसकी जगह उसका पुत्र नन्न है। भरतके नामकी अनुपस्थितिका कारण उनका निधन ही हो सकता है। दक्षिणके राष्ट्रकूट वंश और मालवाके परमार वंशमें जो आक्रमण और प्रत्याक्रमणका सिलसिला चला, उसका अन्त परमार सीयक (श्रीहर्षदेव) ने 972 में मान्यखेडके ध्वंसके रूप में किया । यह ऐतिहासिक सत्य है। स्व. डॉ. हीरालाल जैनका कहना है कि पुष्पदन्तने मान्यखेडकी इस लूटको अपनी आंखों देखा था, और सम्भवतः उस ध्वंसका चित्रण जसहरचरिउकी अन्तिम प्रशस्तिमें किया है ! प्रशस्तिका वास्तविक अंश इस प्रकार है
"जणवयणीरसि दुरियमलीमसि कइणिदायरि दुस्सह दुहयरि पडिय कवालइ णर कंकाल बहु रंकालइ अइ दुक्कालइ पवरागारि सरसाहारि सण्हिं चेलिं . वर तंवोलि महु उवयारिउ
पुर्णिण पेरिउ गुणभत्तिल्लउ णण्णु महल्लउ
होउ चिराउसु वरिसउ पाउसु" -जनपद नीरस और दुरितोंसे मलिन है । कवियोंको निन्दा करनेवाला और असह्य दुखोंको करनेवाला जिसमें कपाल और नरकंकाल पड़े हुए हैं, अनेक दरिद्रोंके घर अत्यन्त अकाल फैला हुआ है।"
१. स्व. डॉ. जैनने दुग्गयर शब्दका मूल दुर्गम माना है। परन्तु दुग्गयर, दुर्गमतरसे बना है। व्युत्पत्ति होगी दुग्ग अ अर दुग्गय
→अरदुग्गयर । उक्त नगरी खाईसे घिरी होने के कारण दुर्गम थी, परन्तु तलवारवाहिनीसे दुर्गमतर हो उठी।
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